मौर्यकालीन भारत के आर्थिक क्रियाकलापों में कृषि का महत्वपूर्ण स्थान था। यूनानी लेखकों के अनुसार मौर्य काल में भारत की अधिकांश जनता कृषक थी। कौटिल्य कृत अर्थशास्त्र से मौर्य कालीन भारत में कृषि से संबद्ध विभिन्न पहलुओं की जानकारी मिलती है।
मौर्य अर्थव्यवस्था में कृषि का स्थान –
मौर्यकालीन कृषि की प्रकृति राज्य नियंत्रित और राजकीय कृषि के सदृश थी। वस्तुत: अति विस्तृत मौर्य साम्राज्य की सुरक्षा हेतु विशाल सेना अत्यावश्यक थी। आपात स्थितियों के लिए राजकोष में पर्याप्त अधिशेष बनाए रखने की नीति भी भयंकर आर्थिक दवाब की जनक थी। राजकीय व्ययों के लिए सामान्य कर अपर्याप्त थे इसलिए राज्य ने प्रमुख आर्थिक गतिविधियों जैसे कृषि को अपने नियंत्रण में ले लिया। अत: तत्कालीन कृषि दो स्तरों पर विकसित हुई –
क.) प्रथम , विशाल राजकीय भूमि में राज्य के नियंत्रणाधीन
ख.) द्वितीय, ग्राम स्तर पर निजी भू-स्वामित्व में।
कृषि विस्तार :
कौटिल्य के अनुसार , राज्य का एक महत्त्वपूर्ण कार्य परती या अकृष्य भूमि में नई बस्तियां बसा कर वहां कृषि कार्य का आरंभ करवाना था। उन्होंने खेती और बस्ती के लिए उपयुक्त भूमि के विभिन्न प्रकारों के अपेक्षित गुणों का विवेचन किया है। सभी परती भूमि राज्य की मानी जाती थी। नई बस्तियों में भूमि गांव के सेवानिवृत्त अधिकारियों तथा पुरोहितों को अनुदान के रूप में दी जाती थी लेकिन इस तरह की भूमि को ना तो बेचा जा सकता था, ना बंधक रखा जा सकता था और ना उत्तराधिकार के रूप में प्राप्त किया जा सकता था। सामान्य किसान भी अपनी भूमि को किसी ऐसे किसान को हस्तांतरित नहीं कर सकते थे, जो कर नहीं देता हो।
राज्य भूमि पर निजी स्वामित्व को मान्यता देता था। नई बस्तियों में कृषि हेतु जमीन राजस्व चुकाने के लिए प्रस्तुत व्यक्तियों को दी जाती थी। यद्यपि यह बंदोबस्त आजीवन के लिए होता था जिसमें यह निहित रहता था कि यदि संबद्ध किसान आवंटित भूखंड पर खेती नहीं करता था तो भूमि अन्य व्यक्ति को बेहतर उपयोग हेतु हस्तांतरित कर दी जाती थी अथवा राज्य अपने नियंत्रण में उस पर खेती करवाता था।
मौर्य युग में कृषि का स्वरूप :
अनुमानित है कि मौर्य काल में गंगा द्रोणी के काफी बड़े भाग पर खेती होने लगी थी। समस्त कृषि कार्य का बहुत बड़ा हिस्सा विशाल राजकीय भूमि में राज्य के नियंत्रणाधीन था। मौर्यों ने कृषि विभाग की स्थापना की। जिसका अध्यक्ष सीताध्यक्ष कहलाता था। मौर्य काल में राजकीय एवं निजी अधिकार क्षेत्र में 500 अथवा 1000 करीस के क्षेत्रफल वाले बड़े बड़े खेतों की प्रथा थी। राजकीय खेती सीताध्यक्ष के नियंत्रण में थी। इसमें कृषि कार्य दासों, जुर्माना चुकाने में असमर्थ बंदी अपराधियों एवं कर्मकारों (दैनिक मजदूरों) से करवाया जाता था। कृषि मजदूर , खुराक के अतिरिक्त उपज का सवा प्रतिशत भाग मजदूरी के तौर पर प्राप्त करते थे। संभवत: निजी भू स्वामियों के खेतों में कार्य करने पर यही मजदूरी मिलती थी।
राजकीय नियंत्रण से मुक्त भूमि पर कृषक या काश्तकार (उपवस) खेती करते थे। समाहर्ता या उनके सहायक भी इनके कार्य की निगरानी करते थे। राज्य नियंत्रित कृषि से हुई उपज सीता कहलाती थी तथा इसे राज्य के भंडार में सीताध्यक्ष द्वारा जमा करवाया जाता था। निजी भू स्वामियों द्वारा राजकोष में देय राजस्व भाग कहलाता था। अर्थशास्ञ में कोष्ठगाराध्यक्ष द्वारा नियंत्रित, अन्न संग्रहागारो के स्थापन तथा निरीक्षण का भी उल्लेख है।
कृषि को राजकीय प्रोत्साहन :
मौर्य काल में बंजर भूमि को आबाद करने वाले कृषकों को राज्य प्रोत्साहित करता था। ऐसी भूमि पर बसने वाले कृषकों को राज्य की ओर से बीज, मवेशी और सुविधानुसार चुकाने की शर्त पर नकद राशि भी कर्ज के तौर पर दी जाती थी। बंदोबस्त के समय कर में छूट जैसी रियायतें भी किसानों को दी जाती थी।
मौर्य काल में कृषि के विस्तार में सर्वाधिक सहायक कारक, “राज्य द्वारा सिंचाई सुविधाओं का प्रबंध और किसानों के लाभ के लिए जल आपूर्ति का नियमन” था। मेगास्थनीज के अनुसार, ” मिस्र की तरह मौर्य साम्राज्य में भी अधिकारी भूमि की पैमाइश और जिन नहरों से कुल्याओं में पानी वितरित किया जाता था, उनकी जांच पड़ताल करते थे, जिससे हर कृषक को समान लाभ मिले। पानी को संचित करने के लिए सेतु नामक बांध बनाए जाते थे। अर्थशास्त्र में दो प्रकार के सेतुओ का उल्लेख मिलता है
1. सहोदक सेतु जैसे पोखरा, कुएं आदि और
2. ओहतोदक सेतु जैसे जलागार।
निजी स्वामित्व वाले सिंचाई साधन जैसे पोखरे भी होते थे। सिंचाई साधनों को नुकसान पहुंचाना बड़ा अपराध माना जाता था। कौटिल्य के अनुसार बांध काटने वाले व्यक्ति को पानी में डूबो कर मार देना चाहिए। फसल की क्षति को रोकने के लिए राज्य चूहों,हानिप्रद कीटो तथा जंगली पशु पक्षियों को मारने की व्यवस्था करता था। सैन्य प्रयाण के समय कृषि की सुरक्षा का विशेष ध्यान रखा जाता था।
मौर्य काल में कृषकों से उदक भाग (सिंचाई शुल्क) भी लिया जाता था। कौटिल्य ने अर्थशास्त्र में कृषि कार्य की प्रकृति के आधार पर निर्धारित कर का उल्लेख किया है, जो निम्नलिखित है –
1.हस्तप्रवर्तिन – शारीरिक श्रम से सिंचाई करने वाले किसान को उपज का पंचमांश उदक भाग देना पड़ता था।
2.स्कंधप्रवर्तिन – कंधे पर पानी ढोकर खेती करने पर उदक भाग चतुर्थांश था।
3.स्रोतोयंत्रप्रवर्तिन – सतही सिंचाई द्वारा खेती करने पर उदक भाग एक तिहाई था।
4.नदीसरस्तटाककूप घट प्रवर्तिन – नदियों, झीलों, पोखरो और कुओं के पानी से सिंचाई करने पर उपज का ⅓ या ¼ भाग कर के रूप में देना पड़ता था।
मौर्य काल में उन्नत कृषि राजकीय आय का सर्वोपरि साधन थी। कौटिल्य के सीताध्यक्ष प्रकरण के अनुसार भूमि पर राजा का स्वत्व होता था इसलिए राजा भूमि के उपयोग का नियंत्रण नियमन और उपज का षष्ष्ठांश भूमि कर के रूप में लेता था तथा बदले में प्रजा की रक्षा करता था। स्पष्ट है कि मौर्य काल में राज्य नियंत्रित बहुत विशाल उपक्रम थी तथा राज्य द्वारा कृषि के विस्तार लिए सिंचाई, बीज,मवेशी,कृषि उपकरण जैसी सुविधाओं की इसमें महत्त्वपूर्ण भूमिका थी।