भारत के प्राचीन इतिहास लेखन में कल्हण को अति महत्वपूर्ण स्थान प्राप्त है कल्हण ने कश्मीर के इतिहास से संबद्ध प्रसिद्ध पुस्तक राजतरंगिणी की रचना की थी।
कल्हण का जन्म संभवत: 12 वीं शताब्दी के प्रारंभिक कालखंड में, कश्मीर में स्थित एक स्थान, परिहासपोर में एक हिंदू ब्राह्मण परिवार में हुआ था। उसके पिता चनपक (Chanpaka) लोहार वंश के शासक हर्ष के मंत्री थे।
राजतरंगिणी (The River of Kings)भारतीय उपमहाद्वीप के उत्तर-पश्चिमी भाग, विशेष रूप से कश्मीर के राजाओं का एक छंदात्मक, पौराणिक और ऐतिहासिक वृत्तांत है। इसे कश्मीरी इतिहासकार कल्हण ने 12वीं शताब्दी ई. में संस्कृत में लिखा था।
राजतरंगिणी में आठ तरंग (अर्थात, अध्याय) और संस्कृत में कुल 7826 श्लोक हैं। इस पुस्तक के प्रथम तीन अध्याय में कश्मीर की पीढ़ी-दर-पीढ़ी से आ रही मौखिक परंपराओं का चित्रण है। अगले तीन अध्याय भी इतिवृत्तात्मक ही हैं। केवल अंतिम दो अध्याय कल्हण की व्यक्तिगत जानकारी एवं ग्रंथावलोकन पर आधारित हैं।
इतिहास लेखन का उद्देश्य :
कल्हण का ध्येय आदिकालीन दंत कथाओं से आरंभ कर अपने समय तक कश्मीर का एक विस्तृत इतिहास लिखना था अतः राजतरंगिणी में कश्मीर की उत्पत्ति पौराणिक वैवस्वत मनु की परंपरा अनुसार वर्णित है। पौराणिक शासको के अनंतर ऐतिहासिक शासक मातृ गुप्त से आरंभ कर 1150 ई. (राजतरंगिणी की पूर्णता की अवधि) तक का इतिहास वर्णित है। इतिहास के विषय में उसकी मान्यता थी कि इतिहास से अधिकाधिक व्यवहारिक शिक्षा प्राप्त हो सकती है क्योंकि प्राचीन शासनकालों के ऐतिहासिक अध्ययन से भविष्य के राजाओं के भाग्य तथा दुर्भाग्य को देखने की अधिक शक्तिशाली दूर दृष्टि प्राप्त होती है। अतः कल्हण ने आधुनिक मापदंडों के अनुरूप अतीत की पुनर्रचना प्रशिक्षित वर्तमान एवं सुखद भविष्य हेतु किया।
तथ्यों का चयन :
राजतरंगिणी के अनुशीलन से ज्ञात होता है कि कल्हण ने इस ग्रंथ के लेखन में अपने पूर्ववर्ती एवं समकालीन स्रोतों – चिट्ठियों, मुद्राओं, शासनादेशों, अभिलेखों, प्राचीन स्मारकों तथा राजकीय अभिलेखागारों में सुरक्षित राजवंशों की वंशावलियों का उपयोग किया है। डॉक्टर वाशम के अनुसार, “कल्हण ने अपने पूर्ववर्ती 11 इतिहासकारों एवं नीलमत पुराण का उपयोग किया है। उन्होंने मंदिरों और मठों में रखे गए संलेखों, अभिलेखों तथा प्रशस्तियों का भी उपयोग किया है।” राजतरंगिणी में जनश्रुति एवं स्मृति में सुरक्षित अतीतकालीन राजनीतिक घटनाओं का भी समावेश हुआ है,यथा – हर्ष का उल्लेख,जिसका आविर्भाव कल्हण से कई शताब्दियों पहले हुआ था किंतु जिसकी स्मृति न्यूनाधिक रूप से जनमानस में सुरक्षित थी।
स्रोतों के प्रति सजगता :
कल्हण ने तत्कालीन हिंदू जीवन में प्रचलित तीन परंपराओं यथा ललितादित्य की मृत्यु (769 ई.) से संबंधित परंपरा तथा यशस्कर की मृत्यु संबंधी परंपरा को भी विवरण का आधार बनाया है किंतु इसे विवेचित करते हुए लिखा है कि “जब बड़ों की मृत्यु होती है तो उनके संबंध में अनेक प्रकार की कहानी लोकजीवन में प्रचलित हो जाती है।” कल्हण ने किसी परंपरा को प्रचलन के रूप में स्वीकार नहीं किया अपितु उसकी प्रामाणिकता को विश्लेषित भी किया, इस तरह उन्होंने आधुनिक इतिहास लेखन विधाओं के अनुरूप लेखन कार्य किया है।
तथ्यों की आलोचनात्मक समीक्षा :
कल्हण ने अपने लेखन में निजी भावनाओं और व्यक्ति विशेष के प्रति पक्षपात का सहारा नहीं लिया है और घटनाओं से संबद्ध तथ्यों को निरपेक्ष रूप में प्रस्तुत किया, यथा – जयसिंह प्रकरण में कल्हण ने उनके उत्तम गुणों की प्रशंसा के साथ-साथ दुर्गुणों की निंदा भी की है। राजतरंगिणी में विभिन्न राजवंशों से संबंधित राजाओं के चरित्र, नीतियों एवं दरबारी षडयंत्रों का स्पष्ट विश्लेषण किया गया है तथा किसी शासक विशेष को अकारण महिमा मंडित नहीं किया गया है।
इतिहास लेखन का उद्देश्य :
कल्हण ने आधुनिक मापदंडों के अनुरूप केवल राजाओं के जीवन वृत्त और साम्राज्य विस्तार हेतु किए गए युद्धों को ही नहीं बल्कि सामाजिक आर्थिक व्यवस्था तथा जनता की स्थिति की भी व्याख्या अपने ग्रंथ में की है। उसने उत्पल वंश के शासनकाल में कश्मीर में पड़े दुर्भिक्ष के संबंध में लिखा है, “कोई बहुत स्वल्प मात्रा में वितस्ता (झेलम) नदी में पानी देख सकता था क्योंकि वह नदी पानी सोखे और फूले हुए मानव शवों से ढकी थी, देश सारी दिशाओं में हड्डियों से घना ढका महाश्मशान सदृश्य था, जो देखने वालों में भय उत्पन्न करता था। राजा पिछले मंत्रियों से अधिक धन वसूलने वाले को मंत्री नियुक्त करता था।” कल्हण ने उत्पल वंश के सुयोग्य शासक अवंतिवर्मन के शासनकाल में खाद्यान्नों की कीमतों में कमी का उदाहरण देते हुए लिखा है, “खिरनी चावल का मूल्य 200 दीनार से 36 दीनार हो गया।” उसने कश्मीर की सांस्कृतिक गतिविधियों पर भी प्रकाश डाला है।
मातृभूमि कश्मीर के प्रति कल्हण का अनुराग या राष्ट्रीयता के भावना के कारण उसे राष्ट्रवादी इतिहासकार की श्रेणी में रखा जा सकता है किंतु यह तथ्य सराहनीय है की एक इतिहासकार के रूप में कल्हण का राष्ट्रवाद पक्षपातविहीन है।
निजी भावनाओं के समावेश से अतिरंजित तथ्य :
कल्हण के इतिहास दर्शन की समीक्षा से स्पष्ट होता है कि उन पर प्राचीन भारतीय इतिहास लेखन की इतिहास पुराण परंपरा का प्रभाव था। उसने जलाशय में निमग्न पृथ्वी का उद्धार कर कश्मीर के रूप में प्रति स्थापित किया तथा उसके इतिहास का सूत्रपात प्रजापति कश्यप से किया है। कल्हण ईश्वर और भाग्य को भी स्वीकार करते है, किंतु ऐतिहासिकता में यह धार्मिकता बाधक सिद्ध होती है, यथा कल्हण के अनुसार कश्मीर के मेघ वाहन नरेश ने वरुण देवता की कृपा से श्रीलंका पर विजय प्राप्त की थी वरुण ने समुद्र के जल को स्थल रूप दिया जिससे कश्मीरी सेना समुद्र को पैदल पार कर श्रीलंका में प्रविष्ट हुई थी।
साहित्यिक सौंदर्य तथा ऐतिहासिक तथ्य का समन्वय :
कल्हण ने राजतरंगिणी में साहित्यिक सौंदर्य तथा ऐतिहासिक सत्य को समन्वित कर घटनाओं का विस्तृत संदर्भ में वर्णन एवं सूक्ष्म विवेचन किया है परंतु उनका समस्त वर्णन तिथि परक नहीं रहने और धार्मिक आख्यानों के समावेश से एक इतिहासकार के रूप में उनके स्वीकृति पूर्णत: विवाद मुक्त नहीं है।
यद्यपि राजतरंगिणी में उद्धृत तथ्यो को ऐतिहासिक महत्व दिया जाता है लेकिन इतिहासकारों के अनुसार राजतरंगिणी के प्रथम तीन अध्यायों के विवरण काल-क्रम की प्रामाणिकता की दृष्टि से ऐतिहासिक रूप से महत्वहीन हैं, यथा – lराणादित्य को 300 साल का शासनकाल दिया गया है। राजतरंगिणी में उल्लेखित तोरमाण,निश्चित रूप से हूण शासक है,लेकिन उसके पिता मिहिरकुल की शासनावधि तोरमाण से 700 साल पूर्व की है। कल्हण का विवरण कालानुक्रमिक त्रुटियों से युक्त है।
कल्हण ने कर्म को भाग्य से वरीय स्थान दिया तथा राजा को देवी अधिकार संपन्न नहीं मानकर प्रजा पालक घोषित किया।
स्पष्ट है कि कल्हण की लेखन शैली में इतिहास लेखन की अभिनव धारा का प्रमाण मिलता है जो अनेक दृष्टियों से इतिहास की आधुनिक परिभाषा के समीप है अधिकांश विद्वानों ने कल्हण को प्राचीन भारतीय इतिहास लेखक के और राजतरंगिणी को ऐतिहासिक ग्रंथ के रूप में स्वीकार किया है।