पैगंबर मुहम्मद : इस्लाम का उद्भव

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मुहम्मद (सी. 570 – 8 जून 632 ई.), अरब के धार्मिक, सामाजिक और राजनीतिक नेता और इस्लाम के संस्थापक थे। इस्लामी सिद्धांत के अनुसार, वह एक पैगंबर थे जिन्हें एकेश्वरवादी शिक्षाओं का प्रचार करने के लिए ईश्वरीय प्रेरणा मिली थी। उन्हें इस्लामी सिद्धांतों के अंतर्गत पैगम्बरों की मुहर (पैगम्बरों की मुहर कुरान में प्रयुक्त एक उपाधि है, तथा मुसलमानों द्वारा इस्लामी पैगम्बर मुहम्मद को ईश्वर द्वारा भेजे गए अंतिम पैगम्बर के रूप में नामित करने के लिए इसका प्रयोग किया जाता है।) माना जाता है।

सुन्नत, इस्लाम में पैगंबर मुहम्मद की परंपराओं और प्रथाओं का समूह है जो मुसलमानों के लिए एक आदर्श अनुसरण है। सुन्नत वह है जिसे मुहम्मद के समकालीन सभी मुसलमानों ने माना और उसका पालन किया और इन परंपराओं से अगली पीढ़ियों को अवगत कराया । शास्त्रीय इस्लामी सिद्धांतों के अनुसार, सुन्नत का लिखित रूप हदीस (मुहम्मद की शिक्षाओं, कर्मों और कथनों, मौन अनुमतियों या अस्वीकृतियों का मौखिक रूप से प्रसारित साक्ष्य) है, और कुरान (इस्लाम की पुस्तक) के साथ संयुक्त रूप में ये मुहम्मद के माध्यम से दिए गए दिव्य रहस्योद्घाटन (वाही) हैं जो इस्लामी कानून और विश्वास/धर्मशास्त्र के प्राथमिक स्रोत हैं। सुन्नी शास्त्रीय इस्लामी सिद्धांतों से अलग शिया मुसलमानों के सिद्धांत हैं, जो मानते हैं कि इमाम सुन्नत की व्याख्या करते हैं, और सूफी जो मानते हैं कि मुहम्मद ने सुन्नत के मूल्यों को “सूफी शिक्षकों की एक श्रृंखला के माध्यम से” प्रसारित किया।)

पैगंबर मुहम्मद का प्रारंभिक जीवन :
मुहम्मद के वंश और प्रारंभिक जीवन के बारे में बहुत कम जानकारी है, ऐसा लगता है कि पैगंबर का जन्म मक्का में 570 और 580 ईस्वी के बीच बनू हाशिम के परिवार में हुआ था, जो कुरैश का एक प्रतिष्ठित परिवार था, हालांकि यह प्रमुख कुलीन वर्ग में से एक नहीं था। कहा जाता है कि मुहम्मद खुद गरीब परिस्थितियों में एक अनाथ के रूप में पले-बढ़े थे, शायद उनके दादा या दादी ने उनका पालन किया था। उन्होंने खुद से कई साल बड़े एक अमीर व्यापारी की विधवा खदीजा से शादी करके धन और पद अर्जित किया।

ये घटनाएँ कुरान की इस आयत में प्रतिध्वनित होती हैं: ‘क्या उसने तुम्हें अनाथ नहीं पाया और तुम्हें घर नहीं दिया और तुम्हें भटकता हुआ नहीं पाया और तुम्हें मार्ग नहीं दिखाया और तुम्हें जरूरतमंद नहीं पाया और तुम्हें समृद्ध नहीं बनाया?’ (93: 6-8)
:Bernard Lewis – The Arabs in History’

यह संभव है कि वह खुद व्यापार करते थे, हालांकि यह निश्चित नहीं है। मक्का एक व्यापारिक शहर था और कुरान में वाणिज्यिक रूपकों और मुहावरों के बार-बार इस्तेमाल से प्रतीत होता है कि उन्हें कुछ व्यापारिक अनुभव था। कुछ परंपराएं पड़ोसी देशों की व्यापारिक यात्राओं के बारे में बताती हैं लेकिन उनकी सत्यता संदिग्ध है। निश्चित रूप से मुहम्मद की शिक्षाओं से उनके निजी जीवन के विषय में कम जानकारी मिलती है। उनकी आध्यात्मिक पृष्ठभूमि या संदेश की प्रमाणिकता भी स्पष्ट नहीं है। सीरा के अनुसार, वह यहूदियों और ईसाइयों दोनों से परिचित थे, यह तथ्य सत्य प्रतीत होता है क्योंकि पूर्ववर्ती यहूदी और ईसाई धर्मग्रंथों के एकेश्वरवाद और रहस्योद्घाटन के विचार कुरान में भी स्पष्ट है।

इस्लाम धर्म का उदय :
आधुनिक विद्वानों ने बाइबिल की कहानियों के मुस्लिम संस्करणों या रूपांतर से यह अनुमान लगाया है कि आरंभिक मुसलमानों को बाइबिल संबंधी ज्ञान अप्रत्यक्ष रूप से संभवतः यहूदी और ईसाई व्यापारियों और यात्रियों से, प्राप्त हुआ था। जिनकी जानकारी मिडराशिक और अपोक्रिफ़ल प्रभावों (मिड्रैश और अपोक्रिफा दोनों ही साहित्यिक कृतियाँ हैं जो यहूदी साहित्य और विचार तथा रब्बिनिक यहूदी धर्म और ईसाई धर्म का विकास कैसे हुआ इसकी जानकारी देती हैं),
मिड्रैश, रब्बी साहित्य की एक शैली जिसे पारंपरिक रूप से विशेष रूप में यहूदी माना जाता था। हालाँकि, अब यह हिब्रू शास्त्रों और न्यू टेस्टामेंट में मौजूद है।
अपोक्रिफा ऐसी पुस्तकों का संग्रह है,जो न्यू टेस्टामेंट के आधिकारिक रूप में शामिल नहीं की गई पुस्तकों से प्रभावित थी। इस्लामी परंपरा में, हनीफ़ नाम से संबोधित किए जाने वाले मक्का के मूर्ति पूजक लोगों का उल्लेख है,जो अपने लोगों में प्रचलित मूर्तिपूजा से असंतुष्ट थे और धर्म के शुद्ध रूप की तलाश करते थे, लेकिन यहूदी धर्म या ईसाई धर्म को स्वीकार करने के लिए तैयार नहीं थे। यह संभव है कि मुहम्मद की आध्यात्मिक उत्पत्ति उन्हीं में से हो।

इस्लामी परंपरा के अनुसार, यह आह्वान सबसे पहले मुहम्मद को तब मिला जब वह अपने चालीसवें वर्ष के करीब पहुँच रहे थे। उनके शुरुआती उपदेशों को मक्का के लोगों द्वारा हानिरहित माने जाने के कारण,उन्होंने इसका कोई विरोध नहीं किया। कुरान की आयतें मुख्य रूप से ईश्वर की एकता, मूर्तिपूजा की दुष्टता और ईश्वरीय न्याय के आसन्न होने से संबंधित हैं। उनका घोषित उद्देश्य अरबों को एक अरबी रहस्योद्घाटन प्रदान करना था, जैसा कि पहले अन्य लोगों जैसे यहूदियों और ईसाइयों को उनकी अपनी भाषाओं में दिया गया था।

आरम्भ में उन्हें केवल कमज़ोर तबकों के बीच मुख्य रूप से समर्थन मिला। सबसे पहले धर्म परिवर्तन करने वालों में उनकी पत्नी ‘ख़दीजा’ और उनके चचेरे भाई ‘अली’ शामिल थे, जो बाद में चौथे खलीफ़ा बने। जैसे-जैसे मुहम्मद अपने धार्मिक विश्वासों के प्रति अधिक मुखर होते गए और मक्का के मौजूदा धर्म को प्रत्यक्ष रूप से चुनौती देने लगे, शासक वर्ग में उनके और उनके अनुयायियों के प्रति विरोध भी बढ़ता गया। उन्नीसवीं सदी के एक यूरोपीय विद्वान ने नवोदित मुस्लिम समुदाय और मक्का के कुलीनतंत्र के बीच संघर्ष को एक ‘वर्ग-संघर्ष’ के रूप में प्रस्तुत किया है,जिसमें मुहम्मद, सत्तारूढ़ बुर्जुआ कुलीनतंत्र के खिलाफ निम्न तबके के वंचित जनों के आक्रोश का प्रतिनिधित्व करते थे। यह दृष्टिकोण मुहम्मद के उपदेश को एक भिन्न धार्मिक आस्था वाले ओर विशेषाधिकार प्राप्त वर्ग के विरुद्ध मानता है लेकिन कुछ हद तक आरंभिक इस्लामी आख्यान भी संकेत देते हैं कि उनके अनुयायियों में से अधिकांश गरीब वर्गों से थे, और मक्का के पदानुक्रम का विरोध आर्थिक और सामाजिक उद्देश्यों से था।
मक्का में मुहम्मद के विरोध के दो महत्वपूर्ण पहलू थे –
1.उन्हें यह भय था कि पुराने धर्म और मक्का के पवित्र स्थान की स्थिति को समाप्त करने से मक्का तीर्थयात्रा और आर्थिक केंद्र के रूप में अपनी अनूठी और लाभदायक स्थिति से वंचित हो जाएगा।
2.मुहम्मद के मक्का के प्रमुख परिवारों का सदस्य नहीं होने से भी उनके धार्मिक विश्वासों पर उन्हें आपत्ति थी।

मुहम्मद के विरोधियों ने धार्मिक के बजाय राजनीतिक रूप से उनका विरोध किया, और अंततः मुहम्मद ने भी राजनीतिक कार्रवाई का सहारा लिया। कुछ परंपरागत विवरणों में, मक्का में उनके प्रवास की अंतिम अवधि में मुसलमानों का उत्पीड़न होने के (संभवतः अतिरंजित) उल्लेख मिलते हैं लेकिन इसमें सत्य का अंश भी है, यथा ; इस्लाम में धर्मांतरित लोगों के एक समूह को इथियोपिया में पलायन के लिए विवश होना पड़ा था। हालांकि, उत्पीड़न के बावजूद, इस्लाम को लोग स्वीकार करते रहे l सबसे उल्लेखनीय लोगों में एक छोटे कबीले ‘बनू अदी’ के सदस्य ‘अबू बकर’ और ‘उमर’ थे जिनके निर्णय और त्वरित कार्रवाई संघर्षरत इस्लामी समुदाय के लिए बहुत मूल्यवान थी। उथमान, मक्का के प्रमुख परिवारों में से एक और शासक कुलीन वर्ग से संबंधित “उमय्या घराने’ के सदस्य थे, जो इस वर्ग से इस्लाम में धर्मांतरित एकमात्र महत्वपूर्ण व्यक्ति थे। मक्कावासियों के विरोध के कारण कोई महत्वपूर्ण सफलता प्राप्त करने में विफल रहने के कारण मुहम्मद को सफलता के लिए कहीं और जाना पड़ा। ताइफ़ शहर में प्रवास के एक असफल प्रयास के बाद, मदीना के लोगों से प्राप्त, वहाँ रहने का निमंत्रण मुहम्मद ने स्वीकार कर लिया।

‘हिजरा’ – मदीना प्रवास
मदीना का मरूद्यान,मक्का से लगभग 280 मील उत्तर में स्थित है। इस्लाम-पूर्व काल में इसे ‘यथ्रिब’ के नाम से जाना जाता था, अति प्राचीन काल से बसे इस शहर के नाम का उल्लेख ग्रीक भौगोलिक लेखन और प्राचीन अरब शिलालेखों में मिलता है। यह मुख्य रूप से यहूदियों द्वारा बसाया गया था, जिसमें निस्संदेह ‘जूडिया या जुडा’ से आए शरणार्थी और यहूदी धर्म में परिवर्तित हुए अरब दोनों शामिल थे। तीन मुख्य यहूदी जनजातियाँ थीं, ‘बानू कुरैज़ा’, ‘बानू नादिर’ और ‘बानू कयनुका’। ऐतिहासिक स्रोतों के अनुसार पहली दो जनजातियां कृषक थीं और तीसरी जनजाति हथियार और स्वर्ण वस्तुएं बनाती थीं। किसी अज्ञात तिथि पर, दो मूर्तिपूजक अरब जनजातियाँ, ‘औस’ और ‘खजराज’, मदीना मरूद्यान में बस गईं। वे यहूदियों के ग्राहक या संरक्षक के रूप में आए थे, लेकिन अंततः शहर और मरूद्यान में प्रमुख हो गए।

मक्का से मदीना की ओर मुहम्मद का प्रवास ‘हिजरा’, एक महत्वपूर्ण मोड़ था। कुरैश कबीले ने इसे रोकने के लिए कोई गंभीर प्रयास नहीं किया, और मुहम्मद अपनी मर्जी से चले गए। उन्होंने अपने अनुयायियों को जाने का आदेश देने के बजाय आमंत्रित किया और खुद मक्का में आखिरी तक रुके, इसमें कोई संदेह नहीं कि इस कदम से मदीना में उनकी स्थिति – ‘एक निश्चित स्थिति वाले एक निश्चित समूह के प्रमुख के रूप में थी”।
मदीना के लोगों द्वारा मुहम्मद को दिए गए निमंत्रण की उत्पत्ति और उद्देश्यों के बारे में अलग-अलग कहानियाँ हैं। इनमें एक महत्वपूर्ण तत्व निश्चित रूप से मध्यस्थ के रूप में आंतरिक विवादों को निपटाने की उनकी क्षमता थी। एक नए धर्म के साथ-साथ, उन्होंने उन्हें सुरक्षा और सामाजिक अनुशासन का एक विकल्प भी दिया। मक्का के लोगों के विपरीत, मूर्तिपूजा की निरंतरता में मदीना वासियों का कोई निहित स्वार्थ नहीं था और वे इस्लाम के धार्मिक विश्वासों को स्वीकार कर सकते थे, बशर्ते कि यह उनकी राजनीतिक और सामाजिक आवश्यकताओं को पूरा करता हो।

मदीना के लोगों का इस्लाम में धर्मान्तरण बहुत समय के बाद हुआ। मदीना के लोगों में इस ‘विदेशी’ मध्यस्थ को आमंत्रित किए जाने के विषय में आरंभ से मतभेद थे। जिन्होंने मुहम्मद का समर्थन किया था उन्हें इस्लामी परंपरा में अंसार, यानी सहायक के रूप में जाना जाता है, जबकि जो लोग उनका विरोध करते थे, उन्हें मुनाफिकुन, यानी पाखंडी की अपमानजनक उपाधि दी गई है।

संभवतः हिजरी से पहले काफी विचार विमर्श हुआ और आखिरकार 622 ईस्वी में यह घटना (इस्लामी इतिहास में पहली आम तौर पर प्रमाणित तारीख) हुई। यह मुहम्मद के धार्मिक उद्देश्यों में एक महत्वपूर्ण मोड़ और इस्लाम में क्रांति का प्रतीक है। मक्का में मुहम्मद का उल्लेख एक निजी व्यक्तित्व या नागरिक के रूप में मिलता है लेकिन मदीना में वे एक समुदाय के मुख्य न्यायाधीश थे। मक्का में उन्हें मौजूदा व्यवस्था के कमोबेश निष्क्रिय विरोध तक ही सीमित रहना पड़ा; मदीना में उन्होंने शासन किया। मक्का में उन्होंने इस्लाम का प्रचार किया था; मदीना में वे इसका अभ्यास करने में सक्षम थे। यह परिवर्तन मुहम्मद की कथात्मक जीवनी, (जो पौराणिक कम ओर ऐतिहासिक चरित्र की अधिक हो जाती है) और कुरान (जो धर्मशास्त्र से कानून बन जाता है) दोनों में परिलक्षित होता है।

हिजरी के युगांतरकारी प्रभाव की समझ मुसलमानों में थी इसलिए नए युग की तिथि उस वर्ष की शुरुआत से तय की गई जिसमें यह घटना हुई थी। मदीना में भी मुहम्मद के शासन की शुरुआत गंभीर कठिनाइयों के साथ हुई क्योंकि उनके समर्पित समर्थकों, जिनमें मुहाजिरुन, उनके साथ आए मक्कावासी और मदीना के अंसार शामिल थे, की संख्या बहुत कम थी। इन्हें मदीना के लोगों के सक्रिय विरोध का सामना करना पड़ा, जो हालांकि मुख्य रूप से राजनीतिक था, फिर भी कभी-कभी भयानक उग्र रूप ले लेता था,
Bernard Lewis के अनुसार “ऐसा प्रतीत होता है कि मुहम्मद को यहूदियों के धार्मिक विश्वास और धर्मग्रंथों की प्रकृति के कारण उनसे एक मैत्रीपूर्ण व्यवहार मिलने की उम्मीद थी, मुहम्मद मानते थे कि यहूदी उनके धार्मिक विश्वासों को अधिक सहानुभूति और समझ के साथ ग्रहण करने के लिए प्रेरित होगे। यद्यपि यहूदियों ने गैर-यहूदी पैगंबर के दावों को खारिज कर धार्मिक स्तर पर उनका विरोध किया लेकिन यहूदी अपने विरोध में विफल रहे क्योंकि उनमें आंतरिक मतभेद था और आम तौर पर मदीना के लोगों के बीच संभवतः वे अलोकप्रिय भी थे। यहूदियों से कोई समर्थन नहीं मिलने के कारण मुहम्मद ने यहूदी प्रथाओं को जैसे यहूदी प्रथा योम किप्पुर (Yom Kippur) का उपवास छोड़ दिया तथा प्रार्थना की दिशा के रूप में यरूशलेम की जगह मक्का को चुन कर अपने धार्मिक विश्वास को अधिक सख्त अरब चरित्र में परिवर्तित किया।”

मदीना पहुँचने के बाद से ही उनके पास इतनी राजनीतिक शक्ति थी कि वे खुद को और अपने अनुयायियों को कुरैश जैसे हिंसक विरोध से बचा सकते थे। मुहम्मद को यह एहसास हुआ कि अपने धार्मिक सिद्धांत का प्रसार (जो उनका वास्तविक उद्देश्य था), की प्राप्ति के लिए उन्हें एक राजनीतिक निकाय के समर्थन की आवश्यकता थी। अत: उन्होंने राजनीतिक रूप से काम कर और कुशल कूटनीति द्वारा अपनी राजनीतिक शक्ति को एक धार्मिक प्राधिकरण में बदल दिया।

उम्मा व्यवस्था :
अरब से प्राप्त कई क्रमबद्ध ऐतिहासिक दस्तावेज जो मदीना के समुदाय की प्रारंभिक विधिक संरचना को दर्शाते हैं। एक अरब इतिहासकार के शब्दों में, “मुहम्मद ने मुहाजिरुन और अंसार के लिए एक लेख लिखा और जारी किया, जिसमें उन्होंने यहूदियों के साथ एक समझौता करने का और उनके साथ निर्धारित संधि की शर्तों का उल्लेख था। जिसमें कुछ शर्तों के तहत यहूदियों द्वारा अपने धर्म के स्वतंत्र अभ्यास और अपनी संपति पर अधिकार की पुष्टि की गई थी।”

यह दस्तावेज़ आधुनिक अर्थों में संधि नहीं है, बल्कि एकतरफा घोषणा है। इसका उद्देश्य पूरी तरह से व्यावहारिक और प्रशासनिक था और यह पैगंबर की राजनीतिक सतर्कता और कूटनीतिक चरित्र को प्रकट करता है। इसने दो स्तरों पर लोगों के संबंधों को विनियमित किया –
A.मक्का के प्रवासियों और मदीना के कबीलों के मध्य तथा
B.इन दोनों और यहूदियों के मध्य।

इसके तहत जिस समुदाय की स्थापना हुई उसे उम्मा,नाम दिया गया, जो कुछ महत्वपूर्ण परिवर्तनों के साथ आरंभ में इस्लाम-पूर्व शहर का विकास और बाद में इस्लामी निरंकुशता की ओर पहला कदम था। उम्मा के दो प्रमुख प्रभाव –
A.इसने क़बीलाई संगठन और रीति-रिवाजों की पुष्टि की, प्रत्येक जनजाति ने बाहरी लोगों के संबंध में अपने स्वयं के दायित्वों और विशेषाधिकारों को बरकरार रखा। लेकिन,
B.उम्मा के भीतर इन सभी अधिकारों को छोड़ दिया जाने और सभी विवादों को समाधान के लिए मुहम्मद के समक्ष लाए जाने का विधान था, केवल कुरैश को विशेष रूप से छूट दी गई थी। कोई भी वर्ग किसी बाहरी निकाय के साथ अलग से शांति और संधि नहीं कर सकता था।

उम्मा के नियमो का उल्लंघन गैर कानूनी था।अत: ‘उम्मा’,इस्लाम-पूर्व अरब के सामाजिक व्यवहार को हटाने वाले विधान की जगह उसका पूरक था। उम्मा ने इस्लाम पूर्व जनजातीय समुदायों की संपत्ति, विवाह और एक ही जनजाति के सदस्यों के बीच संबंधों के मामलों में इस्लाम-पूर्व प्रथाओं को कायम रखा। वस्तुत: अरब के इस पैगंबर का यह पहला संविधान विशेष रूप से उम्मा के सदस्यों के आपसी और बाहरी लोगों के साथ संबंधों से संबंधित था।

उम्मा व्यवस्था के तहत कुछ महत्वपूर्ण परिवर्तन हुए, यथा –
1.सामाजिक बंधन के रूप में रक्त की जगह आस्था ने ले ली।
2. प्राक इस्लामी अरब कबीलों में पहले से ही ईश्वर और धार्मिक पंथ या संप्रदाय राष्ट्रीयता का प्रतीक थे, और अपने धर्म का त्याग देशद्रोह की अभिव्यक्ति थी। इस परिवर्तन के प्रभाव से उम्मा के भीतर रक्त या जनजाति आधारित संघर्ष का दमन हुआ और मध्यस्थता के माध्यम से विवादों के समाधान की उपलब्धि प्राप्त हुई।
3. समानता का अधिकार भी इस व्यवस्था की नई महत्वपूर्ण अवधारणा थी।

उम्मा के शेख, यानी मुहम्मद ,”किसी सशर्त और सहमति से प्राप्त अधिकार से नहीं, (जो कबीले द्वारा अनिच्छा से दिया गया था और हमेशा वापस लिया जा सकता था), बल्कि एक पूर्ण धार्मिक विशेषाधिकार द्वारा, उन लोगों के लिए काम करते थे जो वास्तव में इस्लाम में धर्मांतरित थे। इस व्यवस्था में अधिकार का स्रोत जनता की राय से ईश्वर को हस्तांतरित कर दिया गया था तथा ईश्वर ने इसे अपने,’रसूल’ के रूप में मुहम्मद को प्रदान किया था। इस हस्तांतरण या इस विचार ने मुस्लिम सरकार और मुस्लिम राजनीतिक विचार के भविष्य के समस्त इतिहास को आकार दिया या उसका मूल तत्व था।

इस प्रकार उम्मा का दोहरा चरित्र था। एक ओर यह एक राजनीतिक संगठन था, एक तरह का नया कबीला जिसके शेख मुहम्मद थे और जिसके सदस्य मुसलमान और अन्य लोग थे। दूसरी ओर इसका मूल रूप से एक धार्मिक अर्थ भी था। यह एक धार्मिक समुदाय था, जिसे धर्मतंत्र कहा जा सकता है। वस्तुत: मुहम्मद के विचारों में राजनीतिक और धार्मिक उद्देश्य कभी भी अलग-अलग नहीं थे तथा यह द्वैतवाद इस्लामी समाज में निहित है, जिसका मूल तत्व मुहम्मद की उम्मा थी।
तत्कालीन परिस्थितियों में, आदिम अरब समुदाय में धर्म को राजनीतिक रूप से व्यक्त और संगठित किया जाना अपरिहार्य था, क्योंकि कोई अन्य विकल्प नहीं था, एकमात्र धर्म ही अरबों के बीच एक राज्य के लिए आवश्यक एकजुटता की शक्ति प्रदान कर सकता था। परंपरागत रूप से क़बीलाई समुदायों के लिए किसी अन्य व्यक्ति या समुदाय के राजनीतिक अधिकार की अवधारणा विदेशी और घृणित थी।

मक्का से आए अप्रवासी आर्थिक रूप से विपत्र और आजीविका के साधनों से वंचित थे, वे मदीना के आर्थिक संसाधनों में अपनी जगह बनाने की जगह, ‘अस्त्र-शस्त्र’ बनाने का काम करने लगे, मदीना और मक्का के बीच युद्ध की स्थिति ने इनके अभ्यास का अवसर भी प्रदान किया। साथ ही व्यापारी कारवां पर मदीना वासी हमले करते थे। मक्का के वाणिज्य व्यापार के खिलाफ इस अभियान ने दो उद्देश्यों को पूरा किया –
A. एक ओर इसने मक्का शहर की नाकाबंदी की और उन्हें अत्यधिक आर्थिक क्षति पहुंचाई जिसने अंततः इस नगर के वासियों को नए धर्म के अधीन करने में सहायता पहुंचाई ।
B.दूसरी ओर मक्का के व्यापारिक काफिलों को लूटने से प्राप्त,आर्थिक लाभ ने मदीना में ‘उम्मा’ की शक्ति, धन और प्रतिष्ठा को बढ़ाया।

बद्र की लड़ाई :
मार्च 624 में, मुहम्मद के नेतृत्व में 300 मुसलमानों ने बद्र में मक्का के एक कारवां पर हमला कर बहुत सारा माल लूट लिया। उनकी इस उपलब्धि को कुरान में ईश्वरीय कृपा की अभिव्यक्ति के रूप में वर्णित किया गया है। बद्र की लड़ाई ने समुदाय को आर्थिक ओर राजनीतिक रूप से स्थिर करने में मदद की। धीरे-धीरे मदीना की गतिविधियां (जो राजनीतिक प्राधिकार की व्यावहारिक समस्याओं और लूट के माल के वितरण से संबंधित थे तथा जिसमें विजित व्यक्तियों और उनके परिवारों के लोग के प्रति व्यवहार के नियम शामिल थे) मक्का के धार्मिक रहस्योद्घाटन से बहुत अलग होते गए।
इस्लाम के सिद्धांतों में भी परिवर्तन हुए, मुहम्मद अब स्पष्ट रूप से एक नए धार्मिक व्यवस्था का प्रचार कर रहे थे, जिसमें वे खुद को पैगंबर के रूप में पेश कर रहे थे। यह नया संदेश अधिक स्पष्ट रूप से अरब था, और मक्का में काबा को तीर्थस्थल के रूप में अपनाने के साथ ही शहर की विजय एक धार्मिक कर्तव्य बन गई थी।

मार्च 625 में कुरैश ने मदीना पर बढ़ते हमले के खतरे के खिलाफ प्रतिक्रिया करते हुए मुहम्मद के खिलाफ एक अभियान भेजा और उहुद की ढलानों पर मुसलमानों को हराया। लेकिन उन्होंने मदीना पर आक्रमण नहीं किया और मक्का लौट आए। मुस्लिम समुदाय को कोई गंभीर हानि नहीं हुई और बद्र की लड़ाई के बाद, मुहम्मद ने यहूदी जनजातियों में से एक पर हमला किया और उन्हें अपने क्षेत्र से बाहर निकाल दिया। हालाँकि, कुरैश ने अभी तक मुहम्मद के विरुद्ध संघर्ष नहीं छोड़ा था। 627 के वसंत में लगभग 10,000 पुरुषों की एक मक्का सेना ने मदीना पर आक्रमण किया और शहर की घेराबंदी की। इसके चारों ओर एक खाई खोदने का सरल उपाय – परंपरा के अनुसार एक फारसी धर्मांतरित द्वारा सुझाया गया – उनकी घेराबंदी-कला को विफल करने के लिए पर्याप्त था, इस जीत के बाद आखिरी बची यहूदी जनजाति, बानू कुरैज़ा का विनाश हुआ, जिस पर मक्का के लोगों के साथ खुफिया जानकारी रखने का आरोप था। सीरा के अनुसार, पुरुषों को मौत के घाट उतार दिया गया; महिलाओं और बच्चों को गुलाम बना कर बेच दिया गया।

मक्का पर विजय :
628 की शुरुआती वसंत में मुहम्मद ने मक्का पर हमला करने का प्रयास किया लेकिन यह स्पष्ट होने पर कि प्रयास समय से पहले था, इस आक्रामक अभियान को एक शांतिपूर्ण तीर्थयात्रा में बदल दिया गया। मुस्लिम नेताओं ने मक्का के आसपास के पवित्र क्षेत्र की सीमाओं पर हुदैबिया नामक स्थान पर मक्का के वार्ताकारों से मुलाकात की, यह वार्ता (प्राक इस्लाम के कुछ नियमों के अनुसार कि वर्ष की कुछ अवधि के दौरान कोई लड़ाई नहीं हो सकती थी।) दस साल के युद्धविराम में समाप्त हुई और मुसलमानों को अगले वर्ष मक्का की तीर्थयात्रा करने और वहां तीन दिनों तक रहने का अधिकार दिया गया। हुदैबिया में हुए समझौते ने भविष्य में एक पैगम्बरीय मिसाल के रूप में कार्य किया, जिससे जिहाद को रोक या स्थगित कर वार्ता और युद्धविराम के लिए शरीअत के नियम निर्धारित हुए।
खैबर के यहूदी मरुद्यान पर मुस्लिम विजय ने विजेता मुस्लिम राज्य और विजित गैर-मुस्लिम लोगों के बीच पहली बार शासक और अधीनस्थ वर्ग के मध्य सामाजिक-प्रशासनिक नियमों का निर्धारण किया जो भविष्य में ऐसे समान संदर्भों में व्यवहार का आधार बना। इसके तहत यहूदियों ने अपनी भूमि बरकरार रखी, लेकिन उन्हें आय का 50 प्रतिशत कर या नजराना के तौर पर देना पड़ा।

अगले वर्ष मुहम्मद और उनके दो सौ अनुयायी मक्का की तीर्थयात्रा पर गए, जहाँ नए धर्म की बढ़ती प्रतिष्ठा और शक्ति ने नए लोगों को धर्मान्तरण के लिए आकर्षित किया। उनमें ‘अम्र इब्न अल-आस और खालिद इब्न अल-वालिद शामिल थे, इन दोनों ने बाद की इस्लामी जीत में महत्वपूर्ण भूमिका निभाई। अंतत: जनवरी 630 में, एक मक्कावासी द्वारा एक मुसलमान की हत्या,(जो संभव है कि निजी मतभेद के कारण हुई थी), अंतिम हमले और मक्का पर विजय का कारण बनी। मक्का पर कब्ज़ा करने और कुरैश के इस्लाम की उम्मा के अधीन होने के साथ ही पैगंबर का उद्देश्य और कार्य उनके जीवनकाल में लगभग पूरा हो गया था तथा उनके जीवन के शेष वर्ष में ऐसा प्रतीत नहीं होता कि उन्होंने किसी भी सैन्य गतिविधि में भाग लिया था।

पैगम्बर मुहम्मद की उपलब्धियों :
मुहम्मद ने जो व्यवस्था पेश की वह जनजातियों/कबीलों के लिए विदेशी थी, जिसमें व्यक्तिगत स्वतंत्रता के प्रति उनके गहन प्रेम और उनके स्थापित आचार व्यवहार के नियमों और पैतृक परंपराओं के एक महत्वपूर्ण हिस्से का त्याग करने की मांग की गई थी। यह पैगंबर की राजनेता की योग्यता का ही परिणाम था कि उन्होंने इन कठिनाइयों को समझा और काफी हद तक उन पर विजय प्राप्त की।
हिजरी के बाद उनकी कूटनीति का तात्कालिक और बाहरी उद्देश्य कुरैश को हानि पहुंचाने के लिए अपने प्रभाव का विस्तार करना था। उन्होंने कबीलों के पूर्वाग्रहों के साथ टकराव से बचकर, जनजातियों के साथ अपने सामूहिक व्यवहार में सैन्य और राजनीतिक मामलों पर ध्यान केंद्रित करके और धर्म को व्यक्तिगत सहमति पर छोड़कर इसे हासिल किया। जनजातियों के साथ मुहम्मद के समझौतों की शर्तें हमेशा एक जैसी थीं – जनजाति मदीना की आधिपत्य को स्वीकार करने, मुसलमानों और उनके सहयोगियों पर हमला न करने और मुस्लिम धार्मिक कर, ज़कात का भुगतान करने के लिए सहमत हुई। कुछ जनजातियों ने मदीना के दूतों को भी स्वीकार किया। दूरदराज के जनजातियों के साथ मुहम्मद ने समानता के आधार पर व्यवहार किया, जनजातियों ने एक उदार और आशावादी तटस्थता बनाए रखी।

‘वुफ़ुद’ – इस्लामी विस्तारवाद
मुहम्मद ने मदीना के शासक के साथ जो अनुबंध किया वह राजनीतिक और व्यक्तिगत था, जो अरब परम्परा के अनुसार, उनकी मृत्यु पर स्वतः ही समाप्त हो गया। दूसरी ओर मक्का की विजय के बाद दूर-दराज के कबीलों में आंशिक और मुख्य रूप से राजनीतिक प्रकृति का एक मुस्लिम समर्थक आंदोलन शुरू हुआ। यह उम्मा की ताकत और प्रतिष्ठा का प्रमाण था और इसने मदीना में कई इस्लामी प्रतिनिधि मंडल का रूप ले लिया, जिन्हें मुस्लिम इतिहास में ‘वुफ़ुद’ के नाम से जाना जाता है। इन प्रतिनिधियों ने राजनीतिक समर्पण और धार्मिक प्रचार की पेशकश की जिसे मुहम्मद ने स्वीकार कर लिया।
मक्का की विजय के बाद दूर-दराज के कबीलों में आंशिक रूप से धार्मिक और मुख्य रूप से राजनीतिक प्रकृति का एक मुस्लिम समर्थक आंदोलन शुरू हुआ। मदीना से दूरस्थ क्षेत्रों की जनजातियों के मध्य;”सीरिया और फारस के विस्तारवाद से प्रभावित और मुस्लिम सैन्य अभियानों की क्रूरता से अपरिचित”,धार्मिक रूप से प्रभावित अल्पसंख्यक भी थे। यहां जनजातियों के बजाय इन अल्पसंख्यकों से ही वुफ़ुद आया अर्थात इन अल्पसंख्यकों ने इस्लाम में धर्मान्तरण किया। पारंपरिक जीवनी के अनुसार, 8 जून 632 को, पैगंबर की एक छोटी बीमारी के बाद मृत्यु हो गई।

पैगंबर मुहम्मद की उपलब्धियों के संबंध में Bernard Lewis ने अपनी पुस्तक ‘The Arabs in History’ में लिखा है – “मुहम्मद की उपलब्धियां महत्वपूर्ण है। उन्होंने पश्चिमी अरब के मूर्तिपूजक लोगों में नए धर्म को प्रतिस्थापित किया। उन्होंने उस धर्म को एक रहस्योद्घाटन प्रदान किया था जो आने वाली शताब्दियों में लाखों विश्वासियों के विचारों और आचरण का मार्गदर्शक बनने वाला था। साथ ही उन्होंने एक समुदाय और एक सुव्यवस्थित और सशस्त्र राज्य की स्थापना की थी, जिसकी शक्ति और प्रतिष्ठा ने इसे अरब में एक प्रमुख कारक शक्ति बना दिया था।
आधुनिक इतिहासकार आसानी से यह नहीं मानेंगे कि इतना बड़ा और महत्वपूर्ण आंदोलन, दांते द्वारा ‘सेमिनेटर डि स्कैंडल ई डि स्किस्मा’ के रूप में प्रस्तुत एक स्वार्थी ढोंगी द्वारा शुरू किया गया था। न ही वह विशुद्ध रूप से अलौकिक व्याख्या से संतुष्ट होंगी, चाहे वह दैवीय या शैतानी मूल की सहायता की कल्पना करे; बल्कि, गिब्बन की तरह, वह ‘उचित समर्पण के साथ, यह पूछने की कोशिश करेगा कि वास्तव में नए धर्म के तेजी से बढ़ने के पहले क्या कारण थे, बल्कि द्वितीयक कारण क्या थे।’ उस समय की परिस्थितियों के बारे में जो कुछ भी ज्ञात है, उससे यह स्पष्ट है कि मुहम्मद द्वारा किए गए या उनके द्वारा किए गए कार्यों ने उस समय के अरबों के बीच पहले से मौजूद धाराओं को पुनर्जीवित और पुनर्निर्देशित करने का काम किया।
यह तथ्य कि उनकी मृत्यु के बाद पतन के बजाय गतिविधि का एक नया विस्फोट हुआ, यह दर्शाता है कि उनका करियर एक महान राजनीतिक, सामाजिक और नैतिक आवश्यकता का उत्तर था। एकता और विस्तार के लिए अभियान को किंडा के अल्पकालिक साम्राज्य (किंदा साम्राज्य, किंदत अल-मुलूक या किंडाइट साम्राज्य, उत्तर और मध्य अरब में मा’द संघ के खानाबदोश अरब जनजातियों के शासन से संबंधित है। दक्षिण अरब की जनजाति किंदा के एक परिवार बानू अकील अल-मुरार द्वारा चौथी शताब्दी ईसा पूर्व से छठी शताब्दी ईस्वी तक इस पर शासन किया था।) में पहले से ही एक प्रारंभिक और असफल अभिव्यक्ति मिल चुकी थी। धर्म के उच्चतर रूप की आवश्यकता ने यहूदी धर्म, ईसाई धर्म और अरब हनीफों के और भी महत्वपूर्ण आंदोलन को जन्म दिया था। पैगंबर के जीवनकाल के दौरान भी उनके समानांतर प्रायद्वीप के अन्य हिस्सों में अन्य अरब जनजातियों के बीच झूठे पैगम्बरों की एक श्रृंखला थी, जिनकी गतिविधियाँ आंशिक रूप से नकल थीं, लेकिन आंशिक रूप से समानांतर विकास थीं। मुहम्मद ने अरब राष्ट्रीय पुनरुत्थान और विस्तार की अव्यक्त शक्तियों को जगाया और पुनर्निर्देशित किया था। इसकी पूर्ण उपलब्धि दूसरों पर छोड़ दी गई थी।”

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