अहमदिया, आधिकारिक तौर पर अहमदिया मुस्लिम जमात (AMJ) एक आधुनिक इस्लामी संप्रदाय है जो दुनिया का सबसे बड़ा इस्लामी समुदाय है।। इसकी स्थापना मिर्ज़ा ग़ुलाम अहमद (1835-1908) ने की थी, जिन्होंने कहा था कि उन्हें ईश्वर ने कयामत के दिन आनेवाले महदी (मार्गदर्शित व्यक्ति) और मसीहा दोनों के रूप में नियुक्त किया है। इस अंतिम समय में शांतिपूर्ण तरीकों से इस्लाम की अंतिम विजय होगी। मिर्जा गुलाम अहमद के अनुयायी, (मुहम्मद के वैकल्पिक नाम अहमद के संदर्भ में), अहमदी मुसलमान या केवल अहमदी के रूप में जाने जाते हैं।
अहमदी विचारधारा इस विश्वास पर केंद्रित है कि पैगंबर मुहम्मद को मिले संदेश के अनुसार इस्लाम मानवता के लिए अंतिम व्यवस्था है और इसे इसके वास्तविक उद्देश्य और प्राचीन रूप में बहाल करने की आवश्यकता है, जो कई सदियों की लंबी अवधि में खो गया था। इसके अनुयायी अहमद को महदी मानते हैं, जो इस्लाम को पुनर्जीवित कर और इसकी नैतिक प्रणाली को गति दे कर स्थायी शांति लायेंगे। उनका मानना है कि ईश्वरीय मार्गदर्शन पर उन्होंने इस्लाम को विश्वास और व्यवहार में (मुहम्मद और प्रारंभिक मुस्लिम समुदाय द्वारा अभ्यास किए गए इस्लाम के मूल उपदेशों) विदेशी प्रभाव की वृद्धि से मुक्त किया। इस प्रकार अहमदी खुद को इस्लाम के प्रचार और पुनर्जागरण का नेतृत्व करने वाले के रूप में देखते हैं।
मिर्ज़ा ग़ुलाम अहमद की मृत्यु के बाद इस समुदाय का नेतृत्व कई खलीफ़ाओं ने किया है। 2017 तक यह दक्षिण एशिया, पश्चिम अफ़्रीका, पूर्वी अफ़्रीका और इंडोनेशिया में केंद्रित होकर दुनिया के 210 देशों और विशाल भू-क्षेत्र में फैल गया था। अहमदियों की एक सशक्त धर्म प्रचारक परंपरा है, जिसने इसे ब्रिटेन और अन्य पश्चिमी देशों में पहुँचने वाला पहला मुस्लिम धर्म प्रचारक संगठन बनाया। वर्तमान में, समुदाय का नेतृत्व इसके खलीफ़ा, मिर्ज़ा मसरूर अहमद करते हैं, और अनुमान है कि दुनिया भर में इसकी संख्या 1 से 2 करोड़ (मिलियन) के बीच है। अहमदिया समुदाय में मिर्जा गुलाम अहमद के उत्तराधिकार के प्रश्न पर हुए मतभेद से आरंभ एक आंदोलन से इस समुदाय से अलग अपेक्षाकृत छोटा समुदाय अस्तित्व में आया जिसे लाहौरी अहमदी कहते है।
लाहौर अहमदिया आंदोलन
यह एक एकल, अत्यधिक संगठित समूह है लेकिन समुदाय के शुरुआती इतिहास में, अहमदियों के एक अपेक्षाकृत छोटे समूह ने मिर्जा गुलाम अहमद की पैगंबरी स्थिति और उत्तराधिकार की प्रकृति पर असहमति जताई और लाहौर अहमदिया आंदोलन का आरंभ किया, जो अहमदियों के एक छोटे से हिस्से तक सीमित है।
लाहौर अहमदिया आंदोलन, (अहमदियाह अंजुमन-ए-इशात -ए- इस्लाम लाहौर) अहमदिया आंदोलन के भीतर एक अलगाववादी समूह है जो 1914 में हकीम नूर-उद-दीन, (मिर्जा गुलाम अहमद के बाद पहले खलीफा) के निधन के बाद वैचारिक और प्रशासनिक मतभेदों के परिणामस्वरूप आरंभ हुआ था। लाहौर अहमदिया आंदोलन के सदस्यों को बहुसंख्यक अहमदिया समूह द्वारा ग़ैर मुबायिन (“गैर-दीक्षा प्राप्त”; “खलीफा के प्रति निष्ठा से बाहर के लोग”) के रूप में संदर्भित किया जाता है और उन्हें बोलचाल की भाषा में लाहौरी अहमदी के रूप में भी जाना जाता है।
लाहौर अहमदिया आंदोलन के अनुयायी गुलाम अहमद को मुजद्दिद (सुधारक) मानते हैं और कयामत के दिन आनेवाले महदी भी मानते हैं, लेकिन अहमदिया के मुख्य दृष्टिकोण से अलग वे उनकी भविष्यवाणी की स्थिति को धार्मिक नियम की जगह सूफीवादी या रहस्यवादी मानते हैं।
लाहौर अहमदिया आंदोलन के अनुयायी अहमदिया खिलाफत के प्रति निष्ठा नही रखते हैं और इसकी जगह एक अमीर (अध्यक्ष) की अध्यक्षता में अंजुमन (परिषद) नामक एक जन समूह द्वारा प्रशासित होते हैं।
1889 में आंदोलन की शुरुआत से ही अहमदिया धार्मिक उत्पीड़न और भेदभाव का शिकार रहे हैं। अहमदिया कुरान के सक्रिय अनुवादक और धर्म के विस्तार के लिए धर्मांतरण अभियान चलाने वाले हैं। दुनिया के कई हिस्सों में विशेषकर अफ्रीका में इस्लाम में धर्मांतरित लोग आधिकांशत: अहमदिया के माध्यम से इस्लाम के बारे में जानने लगे। कई इस्लामी देशों में अहमदिया को विधर्मी और गैर-मुस्लिम के रूप में परिभाषित किया गया है और उन पर हमले किए जाते हैं और कई बार राज्य द्वारा स्वीकृत, व्यवस्थित उत्पीड़न भी किया जाता है।
पाकिस्तान में नृजातीय और धार्मिक उत्पीड़न :
पृष्ठभूमि
पाकिस्तान में लगभग 2-5 मिलियन अहमदी रहते हैं, यहाँ दुनिया में अहमदियों की सबसे बड़ी आबादी है। यह एकमात्र ऐसा देश है जिसने आधिकारिक तौर पर अहमदियों को गैर-मुस्लिम अर्थात काफिर और विधर्मी घोषित किया है, क्योंकि वे मुहम्मद को अंतिम पैगंबर नहीं मानते हैं। अहमदिया समुदाय को संदर्भित करने के लिए अपमानजनक रूप से कादियानी शब्द का इस्तेमाल किया जाता है।
पाकिस्तान में अहमदियों के विरुद्ध उत्पीड़न का पहला और प्रमुख घटनाक्रम 1953 के लाहौर दंगे थे और उसके बाद 1974 का अहमदिया विरोधी दंगा पाकिस्तान में अहमदियों के धार्मिक उत्पीड़न में महत्वपूर्ण अध्याय है। जिसके पश्चात
अध्यादेशों, अधिनियमों और संवैधानिक संशोधनों की एक श्रृंखला द्वारा उनकी धार्मिक स्वतंत्रता पर अंकुश लगाया गया था।
1.1953 के लाहौर दंगे :
अहमदिया और मुख्यधारा के मुसलमानों के बीच सबसे बड़ा विवादास्पद अंतर ख़तम अन-नबीयिन की उनकी अलग-अलग व्याख्याएँ हैं। मुख्यधारा के मुसलमान महदी के आने का इंतज़ार कर रहे हैं और मिर्ज़ा ग़ुलाम अहमद के दावों को खारिज़ करते हैं जिन्हें अहमदिया, महदी मानते हैं।
अहमदिया समुदाय, ब्रिटिश भारत में पाकिस्तान निर्माण का मुखर समर्थक था और मुस्लिम लीग के नेताओं के साथ सक्रिय रूप से जुड़ा हुआ था। वे कांग्रेस समर्थित और विभाजन के विरोधी दल मजलिस-ए-अहरार -उल-इस्लाम के विरोधी थे। 1947 में पाकिस्तान की स्वतंत्रता के बाद, अहमदिया समुदाय उच्च साक्षरता दर के कारण पाकिस्तान में कई उच्च रैंकिंग सरकारी और सैन्य पदों पर पदस्थापित था। वे पाकिस्तान में एक महत्वपूर्ण राजनीतिक शक्ति थे और मजलिस-ए-अहरार-उल-इस्लाम से उनकी प्रतिद्वंदिता थी, जो विभाजन के बाद पाकिस्तान के राजनीतिक परिदृश्य में निराश, असंगठित और एकाकी हो गया था। विभाजन से पहले भी इसका एक मुख्य लक्ष्य अहमदिया आंदोलन का विरोध था। 1949 में, मजलिस-ए-अहरार ने देशव्यापी अभियान और विरोध प्रदर्शन शुरू कर दिया।
मांगें और परिणति –
16 से 18 जनवरी 1953 तक कराची में
मजलिस-ए-अहरार-उल-इस्लाम के अंतर्गत तहरीक-ए-खतमे नबूवत के विचार के तहत, पाकिस्तान के सभी मुस्लिम दलों के सम्मेलन में मजलिस-ए-अमल (कार्रवाई परिषद) का गठन किया गया तथा इसका प्रतिनिधित्व करने वाले उलेमाओं के एक प्रतिनिधिमंडल द्वारा 21 जनवरी 1953 को पाकिस्तान के प्रधानमंत्री को अंतिम चेतावनी दी गई की अगर एक महीने के अंदर उनकी तीन मांगे पूरी नहीं की गई तो मजलिस-ए-अमल प्रत्यक्ष कार्रवाई का सहारा लेगी। ये तीन मांगे थीं :
1.विदेश मंत्रालय से जफरुल्लाह खान को हटाना;
2.अहमदियों को शीर्ष सरकारी कार्यालयों से हटाना;
3.अहमदियों को गैर-मुस्लिम घोषित करना।
अशांति और परिणाम –
इस चेतावनी को अस्वीकार कर दिया गया और मजलिस-ए-अहरार ने देशव्यापी अभियान और विरोध प्रदर्शन शुरू कर दिया। अहमदिया विरोधी तत्वों ने धमकी दी कि यदि उनकी मांगें पूरी नहीं की गईं तो वे 22 फरवरी 1953 के बाद सीधी कार्रवाई करेंगे।
1 फरवरी 1953 को सरगोधा में अहमदिया विरोधी तत्वों ने एक अहमदिया को दफनाने का विरोध किया तथा 23 फरवरी से पश्चिमी पाकिस्तान में विशेष रूप से पंजाब प्रांत में अहमदिया विरोधी दंगे भड़क उठे। 27 फरवरी 1953 को लाहौर से प्रकाशित अहमदिया समुदाय के एक प्रकाशन अलफजल के प्रकाशन पर सरकार ने एक वर्ष के लिए प्रतिबंध लगा दिया। इस कमी को फारूक के प्रकाशन से पूरा किया गया। फारूक का पहला अंक 4 मार्च को प्रकाशित हुआ था, लेकिन दूसरे अंक के बाद 11 मार्च को इसका प्रकाशन बंद करना पड़ा। रावलपिंडी में अहमदिया नूर मस्जिद पर भीड़ ने हमला किया और उसे आग लगा दी गई। अहमदियों और जमात अहमदिया के अध्यक्ष के रावलपिंडी की कई दुकानों और घरों में तोड़फोड़ की गई।
6 मार्च 1953 को अहमदिया समुदाय के खिलाफ देशभर में दंगे शुरू हो गए, जिनमें खासकर लाहौर में अत्याचार, हत्या के प्रयास और आगजनी शामिल थी। 6 मार्च लाहौर में मार्शल लॉ घोषित किया गया तथा 12 मार्च को अतिरिक्त मजिस्ट्रेट झंग ने अहमदिया समुदाय के सर्वोच्च प्रमुख को अहमदिया विरोधी दंगों और अहमदिया विरोधी आंदोलन पर टिप्पणी करने से प्रतिबंधित कर दिया। पुलिस अधीक्षक झंग ने कसरे खिलाफत और सदर अंजुमन अहमदिया, रबवाह के केंद्रीय कार्यालयों की तलाशी ली।
मार्च 1953 में, दंगों को भड़काने वाले कई नेताओं को जिनमें अबुल अला मौदूदी, मौलाना अमीन हुसैन इस्लाही, मलिक नसरुल्लाह खान अज़ीज़, सैयद नकीउल्लाह, चौधरी मुहम्मद अकबर सियालकोटी और मियां तुफ़ैल मोहम्मद शामिल थे, को गिरफ़्तार कर लाहौर सेंट्रल जेल भेज दिया गया। 7 मई को मार्शल लॉ अधिकारियों ने अवामी मुस्लिम लीग के अध्यक्ष, मौलाना अब्दुस सत्तार नियाज़ी को मौत की सजा सुनाई तथा 11 मई को मार्शल लॉ अधिकारियों ने कादयानी मसला लिखने और फरवरी और मार्च में दिए गए कुछ प्रेस *बयानों के लिए अबुल अला मौदूदी को मौत की सजा सुनाई। 13 मई को मौदुदी और नियाज़ी की मौत की सज़ा को आजीवन कारावास में बदल दिया गया। 14 मई 1953 को मार्शल लॉ हटा लिया गया। 1954 में मजलिस-ए-अहरार पर प्रतिबंध लगा दिया गया।
पाकिस्तान की नागरिक राजनीति में सेना के शामिल होने अर्थात सैन्य शासन (मार्शल लॉ) की यह पहली घटना थी। 70 दिनों की सैन्य तैनाती मे लेफ्टिनेंट जनरल आज़म खान के सुसंगत नेतृत्व में लाहौर में सामान्य स्थिति बहाल हो गई।
दंगों के अभूतपूर्व राजनीतिक परिणाम भी सामने आए, गर्वनर जनरल मालिक गुलाम मुहम्मद ने सबसे पहले 24 मार्च को पंजाब के मुख्यमंत्री मियां मुमताज दौलताना को अहमदिया विरोधी हिंसा में धार्मिक भावनाओं का उपयोग राजनीतिक लाभ के लिए इस्तेमाल करने के आरोप में पद से हटा दिया।
इसके बाद 17 अप्रैल को, भारत सरकार अधिनियम 1935 के तहत अपनी विशेष शक्तियों का उपयोग करते हुए, गुलाम मुहम्मद ने प्रधानमंत्री ख्वाजा नजीमुद्दीन और पूरे संघीय मंत्रिमंडल को बर्खास्त कर दिया। मुहम्मद अली बोगरा (संयुक्त राज्य अमेरिका में पाकिस्तान के राजदूत) ने उनकी जगह ली। बोगरा, ने नजीमुद्दीन की बर्खास्तगी के कुछ ही घंटों के भीतर 17 अप्रैल 1953 को नए प्रधानमंत्री के रूप में शपथ ली।
19 जून 1953 को दंगों की जांच के लिए एक मुख्य न्यायाधीश मोहम्मद मुनीर की अध्यक्षता में कोर्ट ऑफ़ इंक्वायरी की स्थापना की गई, जिसे पंजाब डिस्टर्बेंस कोर्ट ऑफ़ इंक्वायरी के नाम से जाना जाता है। जांच 1 जुलाई को शुरू हुई और 117 बैठकें हुईं। 23 जनवरी 1954 को साक्ष्य प्रस्तुत करने की अंतिम तिथि थी और मामले में बहस 28 फरवरी 1954 तक चली।10 अप्रैल
1954 को रिपोर्ट जारी की गई जिसे मुनीर रिपोर्ट या मुनीर-कियानी रिपोर्ट कहा जाता है।
मुनीर रिपोर्ट में उल्लेख था,”…अगर इस जांच में एक बात निर्णायक रूप से साबित हुई है, तो वह यह है कि अगर आप लोगों को यह विश्वास दिला सकें कि उन्हें जो कुछ करने के लिए कहा जा रहा है वह धार्मिक रूप से सही है या धर्म द्वारा आदेशित है, तो आप उन्हें अनुशासन, निष्ठा, शालीनता, नैतिकता या नागरिक भावना के सभी विचारों की परवाह किए बिना किसी भी तरह की कार्रवाई करने के लिए तैयार कर सकते हैं।”
इसने “पाकिस्तान में धर्म और राजनीति में घनिष्ठ संबंध” की अवांछनीयता की ओर इशारा किया गया था। हालांकि, इस्लामिस्ट प्रोफेसर अनीस अहमद के अनुसार, रिपोर्ट की “उलेमा” (इस्लामी विद्वानों) द्वारा “एक पक्षपातपूर्ण कार्य” कह कर निंदा की गई। 1973 में, इस्लामिक सहयोग संगठन ने आधिकारिक तौर पर घोषित किया कि अहमदिया संप्रदाय इस्लाम से जुड़ा नहीं है।
1974 का अहमदिया विरोधी दंगा :
मई के अंत से सितंबर 1974 की शुरुआत तक की अवधि में, रबवाह रेलवे स्टेशन पर इस्लामी जमीयत-ए-तलाबा के छात्रों और अहमदिया मुस्लिम समुदाय के युवाओं के बीच धार्मिक भावनाओं को आहत करने के कारण हुए विवाद और हिंसा की घटना के बाद समस्त पाकिस्तान में अहमदिया समुदाय के खिलाफ बड़े पैमाने पर हिंसक विरोध, धार्मिक स्थलों, कब्रगाहों और संपत्ति को नुकसान, हत्याएं, सामाजिक-आर्थिक बहिष्कार और उत्पीड़न शामिल थे। सरकार से अनुमति न मिलने के कारण सहायक अहमदिया संगठनों की सभी बैठकें और सम्मेलन रद्द कर दिए गए।
इन घटनाओं के बाद पाकिस्तान में अहमदियों की धार्मिक स्थिति से संबंधित कई निर्णय विभिन्न सरकारो द्वारा लिए गए, जिसमें संविधान में संशोधन सहित कई अन्य साधन शामिल थे।
1.पाकिस्तान के संविधान में दूसरा संशोधन
सितंबर 1974 में प्रधान मंत्री जुल्फिकार अली भुट्टो की सरकार द्वारा पाकिस्तान के संविधान में किए गए दूसरा संशोधन में घोषणा की गई कि अहमदी (जिन्हें संशोधन कादियानी कहता है) गैर-मुस्लिम थे। इस संशोधन की इन धाराओं के तहत विभिन्न प्रावधान किए गए –
(क) अनुच्छेद 30
पाकिस्तान के संविधान के दूसरे संशोधन के अनुच्छेद 30 के तहत पाकिस्तान के नागरिकों की केंद्रीकृत पहचान करने और सांख्यिकीय डेटाबेस बनाए रखने का प्रावधान था। इसमें प्रत्येक व्यक्ति के पास राज्य द्वारा जारी पहचान पत्र होना अनिवार्य किया गया था। यह पाकिस्तान के राष्ट्रीय पहचान पत्र (एनआईसी) प्रणाली का आधार बना।
(ख) आर्टिकल 260(3)
इसमें कहा गया है कि कानूनी उद्देश्यों के लिए “मुस्लिम” शब्द में वह व्यक्ति शामिल नहीं है जो यह नहीं मानता कि मुहम्मद अंतिम पैगम्बर थे, और “गैर-मुस्लिम” में ” कादियानी समूह या लाहौरी कादियानी समूह (जो खुद को अहमदिया या किसी अन्य नाम से पुकारते हैं) या बहाई” के साथ-साथ बौद्ध, ईसाई, हिंदू, सिख और पारसी शामिल हैं।
2.1980 के एक अन्य अध्यादेश XLIV के अनुच्छेद 298-A द्वारा अहमदिया संप्रदाय का उल्लेख किए बिना इसी संदर्भ में PPC में कुछ संशोधन किए गए :
(क) खलीफा और पैगंबर मुहम्मद के साथी के अलावा किसी भी व्यक्ति को “अमीर-उल-मुमिनीन”, “खलीफतुल-मुमिनीन”, खलीफा-ख़लीफ़ा-तुल-मुसलीमीन”, ”सहाबी” या ”रज़ी अल्लाह अन्हो”; के रूप में संबोधित करता है।
(ख) पैगम्बर मुहम्मद की पत्नी के अलावा किसी अन्य व्यक्ति को “उम्मुल-मुमिनीन” के रूप में संदर्भित करता है या संबोधित करता है; (ग)पवित्र पैगम्बर मुहम्मद, के परिवार “अहले-बैत” के सदस्य के अलावा किसी अन्य व्यक्ति को “अहले-बैत” के रूप में संदर्भित करता है या संबोधित करता है; संदर्भित करता है,
(घ) अपने पूजा स्थल को “मस्जिद” नाम देगा या कहेगा;
उसे किसी एक अवधि के लिए कारावास से दण्डित किया जाएगा जिसे तीन वर्ष तक बढ़ाया जा सकता है, और वह जुर्माने से भी दंडनीय होगा।
प्रधानमंत्री भुट्टो के निकट सहयोगी और विश्वासपात्र डॉ. मुबाशर हसन के अनुसार, ये परिवर्तन मुख्य रूप से उस समय के सऊदी राजा, किंग फैसल बिन अस-सऊद के दबाव के कारण हुए थे।
3.1984 का अध्यादेश XX :
26 अप्रैल 1984 में, पाकिस्तान के तत्कालीन सैन्य शासक जनरल जिया-उल-हक ने अध्यादेश XX जारी किया। इसका उद्देश्य “इस्लाम विरोधी गतिविधियों” को रोकना था। अध्यादेश अहमदिया को, जिन्हें पाकिस्तानी संविधान के तहत गैर-मुस्लिम माना जाता है, सार्वजनिक रूप से इस्लामी विश्वास का पालन करने से रोकता है और उन्हें प्रार्थना के प्रयोजनों के लिए किसी भी इस्लामी ग्रंथ का उपयोग करने की भी अनुमति नहीं देता है।अध्यादेश अहमदियों को इस्लामी समुदाय के लिए विशिष्ट माने जाने वाले किसी भी सम्मानजनक उपाधि और संबोधन और कुरान और मुहम्मद की हदीस से कोई भी उद्धरण देने को आपराधिक गतिविधि घोषित करता है।
अध्यादेश XX के अनुच्छेद :
(क) 298-B :
कुछ पवित्र व्यक्तियों या स्थानों के लिए आरक्षित विशेषणों, विवरणों और उपाधियों आदि के दुरुपयोग से संबंधित है, यह अहमदियों को इस्लामी समुदाय के लिए विशिष्ट माने जाने वाले किसी भी सम्मानजनक उपाधि और संबोधन के तरीके के इस्तेमाल से भी रोकता है, जैसे कि “अस-सलामु अलैकुम”, छह कलमा या शहादत (ईश्वर की एकता और मुहम्मद की पैगम्बरी होने की घोषणा) आदि का पाठ करना, मस्जिदों का निर्माण करना और अज़ान के लिए आह्वान करना, मुस्लिम पूजा पद्धतियों को अपनाना।
इन कार्यों को करने वाले को तीन वर्ष तक की अवधि के लिए कारावास से दंडित करने और जुर्माना देने का प्रावधान है।
(ख) 298-C :
कादियानी या लाहौरी समुदाय का कोई व्यक्ति, जो स्वयं को मुसलमान कहता है या अपने धर्म का प्रचार-प्रसार करता है,कादियानी समूह या लाहौरी समूह का कोई भी व्यक्ति (जो स्वयं को ‘अहमदी’ या किसी अन्य नाम से पुकारते हैं) जो प्रत्यक्ष या अप्रत्यक्ष रूप से स्वयं को मुसलमान बताता है, या अपने धर्म को इस्लाम कहता है, दूसरों को अपने धर्म को स्वीकार करने के लिए आमंत्रित करता है, चाहे मौखिक या लिखित शब्दों द्वारा, या दृश्य चित्रण द्वारा, या किसी भी तरीके से मुसलमानों की धार्मिक भावनाओं को ठेस पहुंचाता है, उसे किसी एक अवधि के लिए कारावास से, जिसकी अवधि तीन वर्ष तक हो सकेगी, दंडित किया जाएगा और जुर्माना भी देना होगा। अहमदिया धार्मिक सामग्री का उत्पादन, प्रकाशन और प्रसार करना भी कानून द्वारा प्रतिबंधित किया गया है।
4.आजाद जम्मू-कश्मीर ( AJ&K ) का बारहवां संशोधन :
पाकिस्तान में आजाद जम्मू-कश्मीर कहे जाने वाले प्रांत में बारहवां संशोधन द्वारा अहमदिया लोगों को गैर-मुस्लिम घोषित कर, पाकिस्तान के अन्य प्रांतों की तरह उन्हें धार्मिक अधिकारों से वंचित कर दिया गया।
परिणाम :
अहमदिया, जो खुद को मुसलमान मानते हैं और इस्लामी प्रथाओं का पालन करते हैं, उनके अनुसार ये अध्यादेश उनके दैनिक जीवन को आपराधिक बनाता है। पाकिस्तान में अहमदियों को संदर्भित करने के लिए ‘कादियानी’, ‘कादियानवाद’, ‘मिर्ज़ई’ और ‘मिर्ज़ियन’ जैसे शब्दों का व्यापक रूप से उपयोग किया जाता है और ‘कादियानी’ शब्द भी सरकार द्वारा अपने संविधान में इस्तेमाल किया गया शब्द है। पासपोर्ट या राष्ट्रीय पहचान पत्र के लिए आवेदन करते समय, सभी पाकिस्तानियों को मिर्ज़ा ग़ुलाम अहमद को एक धोखेबाज़ पैगंबर और सभी अहमदियों को गैर-मुस्लिम घोषित करने वाली शपथ पर हस्ताक्षर करने की आवश्यकता होती है
अध्यादेश का उल्लंघन किए बिना समुदाय के नेता के रूप में अपने कर्तव्यों का पालन करने में असमर्थ, चौथे अहमदिया खलीफा मिर्जा ताहिर अहमद को इसके लागू होने के बाद पाकिस्तान छोड़ने और पलायन करने के लिए मजबूर होना पड़ा। वह अपने परिवार और 17 अन्य अहमदियों के साथ 29 अप्रैल 1984 को लंदन चले गए, अंततः निर्वासन के इन वर्षों के दौरान समुदाय का मुख्यालय लंदन में स्थानांतरित हो गया ।
अहमदियों का उत्पीड़न
पाकिस्तान में अहमदियों से संबंधित कानूनों और संवैधानिक संशोधनों के परिणामस्वरूप, देश के विभिन्न हिस्सों से अहमदियों के उत्पीड़न से संबंधित घटनाएं लगातार दर्ज की जाती है। इन घटनाओं में पाकिस्तान में अन्य मुस्लिम संप्रदायों द्वारा अहमदिया लोगों के जान,संपत्ति और मस्जिदों पर सशस्त्र ओर आत्मघाती हमला किया जाना, कब्रिस्तान में कब्रों को नुकसान पहुंचाना और कब्र पर से कुरान की आयतों या मुस्लिम शब्द को हटा देना शामिल है।
उत्पीड़न की कुछ घटनाएं:
1.अप्रैल 1995 में पाकिस्तान के खैबर पख्तूनख्वा के शब कदर कस्बे में अहमदिया मुस्लिम समुदाय के दो सदस्यों पर सार्वजनिक रूप से पत्थरबाजी की घटना।
2.7 अक्टूबर 2005 को कलाश्निकोव राइफलों से लैस नकाबपोश बंदूकधारियों ने मंडी बहाउद्दीन के मोंग नामक गांव में अहमदिया मुस्लिम समुदाय की एक मस्जिद पर हमला कर दिया, जिसमें आठ लोगों की गोली मारकर हत्या कर दी गई और 14 घायल हो गए।
3.अहमदियों के उत्पीड़न से संबंधित एक अन्य घटना में 7 सितम्बर 2008 में आमिर लियाकत हुसैन ने पाकिस्तानी टेलीविजन चैनल जियो टीवी पर अपने टीवी कार्यक्रम, ‘ख़तमे नबूवत’ में अहमदी समुदाय के संस्थापक मिर्ज़ा ग़ुलाम अहमद की आलोचना की थी। कार्यक्रम में
दो अतिथि विद्वानों ने कहा कि जो कोई भी झूठे पैगम्बरों से जुड़ता है, वह “हत्या के योग्य” है। प्रसारण के 24 घंटे के भीतर, सिंध प्रांत के छोटे से शहर मीरपुर खास में अहमदिया समुदाय के एक प्रमुख सदस्य तथा एक ओर अहमदिया की गोली मारकर हत्या कर दी गई।
4.28 मई 2010 के लाहौर हमले, जिसे लाहौर नरसंहार के रूप में भी जाना जाता है, पंजाब, पाकिस्तान में शुक्रवार की नमाज के दौरान हुआ था। अल्पसंख्यक अहमदिया समुदाय की दो मस्जिदों पर लगभग एक साथ हुए हमलों में 94 लोग मारे गए और 120 से अधिक अन्य घायल हो गए। शुरुआती हमले के बाद, बंधक की स्थिति घंटों तक बनी रही। तहरीक-ए-तालिबान पाकिस्तान, साथ ही उनके पंजाब शाखा ने हमलों की जिम्मेदारी ली।
5.3 सितंबर 2010 को मरदान में एक अहमदिया मस्जिद पर शुक्रवार की नमाज के दौरान एक आतंकवादी ने मस्जिद के अंदर ग्रेनेड फेंके और बाद में अपने आत्मघाती जैकेट में विस्फोट कर दिया। इस हमले में एक अहमदिया की मौत हो गई और तीन घायल हो गए।
6.दिसंबर 2012 को लाहौर में अहमदिया कब्रिस्तान में 100 से ज़्यादा कब्रों को नकाबपोश बंदूकधारियों ने, खास तौर पर इस्लामी शिलालेखों वाली कब्रों को अपवित्र कर दिया। उनके अनुसार, अहमदिया लोगों को अपनी कब्रों पर कुरान की आयतें लिखने का कोई अधिकार नहीं है, क्योंकि वे “मुसलमान नहीं हैं”। पाकिस्तान के मानवाधिकार आयोग (HRCP) ने अहमदिया कब्रिस्तान में 100 से ज़्यादा कब्रों को नष्ट करने की निंदा की और जिम्मेदार लोगों की गिरफ़्तारी की मांग की।
पाकिस्तान में इस्लाम के विभिन्न संप्रदायों से संबंधित सभी धार्मिक और शैक्षणिक मदरसों ने अहमदिया मान्यताओं का खंडन करने के लिए विशेष पाठ्य सामग्री निर्धारित की गई है। इस उत्पीड़न में बहुसंख्यक संप्रदाय के कट्टरपंथी छात्रों, शिक्षकों और प्राचार्यों द्वारा अहमदिया छात्रों के खिलाफ सामाजिक बहिष्कार, निष्कासन, धमकियाँ और हिंसा शामिल है।
नजरत उमूर-ए-आमा सदर अंजुमन अहमदिया पाकिस्तान द्वारा प्रकाशित “वर्ष 2009 के दौरान पाकिस्तान में अहमदियों का उत्पीड़न” शीर्षक वाली रिपोर्ट के अनुसार, वर्ष 2009 के दौरान ग्यारह अहमदियों की हत्या कर दी गई, जबकि कई अन्य हत्या के प्रयास के शिकार हुए। रिपोर्ट में दावा किया गया है कि “अहमदी विरोधियों” की कार्रवाइयों को अधिकारियों के पूर्वाग्रही रवैये से काफी हद तक बढ़ावा मिला है, और आरोप लगाया गया है कि संघीय सरकार अहमदियों के मानवाधिकारों और धार्मिक स्वतंत्रता को नकार रही है, खासकर पंजाब और आज़ाद जम्मू और कश्मीर की सरकारें।
मोहम्मद अब्दुस सलाम (नोबेल पुरस्कार विजेता) से दुर्व्यवहार :
मोहम्मद अब्दुस सलाम एक पाकिस्तानी सैद्धांतिक भौतिक विज्ञानी थे जिन्हें 1979 में दो अन्य सहयोगियों के साथ भौतिकी का नोबेल पुरस्कार मिला था वे इस पुरस्कार को पाने वाले पहले पाकिस्तानी और किसी इस्लामी देश के पहले वैज्ञानिक थे।
सलाम 1960 से 1974 तक पाकिस्तान में विज्ञान और प्रौद्योगिकी मंत्रालय के वैज्ञानिक सलाहकार थे, इस पद पर रहते हुए उन्होंने देश के विज्ञान के बुनियादी ढांचे के विकास में एक प्रमुख और प्रभावशाली भूमिका निभाई। वे अंतरिक्ष और ऊपरी वायुमंडल अनुसंधान आयोग (SUPARCO) के संस्थापक निदेशक थे, उन्होंने सैद्धांतिक भौतिकी समूह (TPG) की स्थापना में प्रमुख योगदान दिया। इसके लिए, उन्हें पाकिस्तान में इस कार्यक्रम के “वैज्ञानिक पिता” कहा गया। 1974 में, अब्दुस सलाम ने पाकिस्तान की संसद द्वारा सर्वसम्मति से अहमदिया मुस्लिम समुदाय के सदस्यों को गैर-मुस्लिम घोषित करने वाले संसदीय विधेयक को पारित करने के बाद विरोध में देश छोड़ दिया लेकिन वे पाकिस्तान में परमाणु तकनीक के विकास में सहयोग करते रहे।1998 में, देश के चगाई-I परमाणु परीक्षणों के बाद, पाकिस्तान सरकार ने सलाम की सेवाओं का सम्मान करने के लिए “पाकिस्तान के वैज्ञानिकों” के एक हिस्से के रूप में एक स्मारक डाक टिकट जारी किया।
इन उपलब्धियों के बाद भी अहमदिया संप्रदाय के अनुयायी होने से, उन्हें अपने देश में नजरअंदाज और बहिष्कृत कर दिया गया। पाकिस्तान में उनके नाम पर कोई स्मारक या विश्वविद्यालय नहीं है।
भौतिकी में नोबेल पुरस्कार के लिए अपने स्वीकृति भाषण के दौरान, सलाम ने कुरान की आयतों को उद्धृत किया और कहा: “क्या तुम दयालु की रचना में कोई अपूर्णता नहीं देखते हो? अपनी नज़र वापस करो, क्या तुम कोई दरार देखते हो? फिर अपनी नज़र वापस करो, बार-बार। तुम्हारी नज़र, चकित, भयभीत होकर तुम्हारे पास लौटती है।” (67:3–4) यह, वास्तव में, सभी भौतिकविदों का विश्वास है; हम जितना गहराई से खोजते हैं, उतना ही हमारा आश्चर्य उत्तेजित होता है, हमारी नज़र के लिए उतनी ही चकाचौंध होती है।
अब्दुस सलाम की मृत्यु 21 नवंबर 1996 को 70 वर्ष की आयु में इंग्लैंड के ऑक्सफोर्ड में हुआ, उनका शव पाकिस्तान वापस लाया गया और सलाम को बहिश्ती मकबरा में दफनाया गया, जो अहमदिया समुदाय द्वारा रबवाह, पंजाब, पाकिस्तान में उनके माता-पिता की कब्रों के बगल में स्थापित एक कब्रिस्तान है। उनकी कब्र पर “पहला मुस्लिम नोबेल पुरस्कार विजेता” लिखा था। पाकिस्तानी सरकार के निर्देश से उनकी कब्र के पत्थर से “मुस्लिम” शब्द मिटा दिया गया है और केवल उनका नाम कब्र के पत्थर पर छोड़ दिया गया।
पाकिस्तान में धार्मिक भेदभाव आधुनिक पाकिस्तान में मानवाधिकारों की स्थिति के लिए एक गंभीर मुद्दा है। ईसाई, हिंदू, सिख, शिया और कादियानी जैसे अन्य धार्मिक अल्पसंख्यकों को अक्सर भेदभाव और कई बार हिंसा का भी सामना करना पड़ता है। अल्पसंख्यक समुदायों द्वारा सामना किए जा रहे महत्वपूर्ण मुद्दों में से एक ईशनिंदा कानून का दुरुपयोग है। अल्पसंख्यक धर्मों से संबंधित लोगों पर अक्सर इस्लामी पैगंबर मुहम्मद के खिलाफ अपमानजनक टिप्पणी करने का झूठा आरोप लगाया जाता है, जिसके परिणामस्वरूप जुर्माना, लंबी जेल की सजा और कभी-कभी मौत की सजा होती है। अक्सर ये आरोप व्यक्तिगत प्रतिशोध को निपटाने के लिए लगाए जाते हैं और अल्पसंख्यकों के खिलाफ पूर्वाग्रह के कारण, पीड़ितों को अक्सर बिना किसी ठोस सबूत के तुरंत दोषी मान लिया जाता है।
2022 में, फ्रीडम हाउस ने पाकिस्तान की धार्मिक स्वतंत्रता को 4 में से 1 रेटिंग दी, जिसमें कहा गया कि ईशनिंदा कानूनों का अक्सर धार्मिक निगरानीकर्ताओं द्वारा शोषण किया जाता है और विशेष रूप से अहमदियों द्वारा अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता पर भी अंकुश लगाया जाता है।
पाकिस्तान के राजनीतिक इतिहास में धार्मिक आस्था के आधार पर उत्पीड़न को इन दो व्यक्तव्यों से समझा जा सकता है कि किस तरह एक अल्पावधि के समय अंतराल में पाकिस्तान में धार्मिक आस्था के आधार पर उत्पीड़न को प्रशासनिक और वैधानिक मान्यता प्राप्त हो गई –
1.आप स्वतंत्र हैं; आप अपने मंदिरों में जाने के लिए स्वतंत्र हैं, आप अपनी मस्जिदों में जाने के लिए स्वतंत्र हैं या पाकिस्तान के इस राज्य में किसी भी अन्य पूजा स्थल पर जाने के लिए स्वतंत्र हैं। आप किसी भी धर्म, जाति या पंथ से संबंधित हो सकते हैं – इसका राज्य के काम से कोई लेना-देना नहीं है।”
– मुहम्मद अली जिन्ना का पाकिस्तान की संविधान सभा में पहला भाषण।
2.पाकिस्तान के दूसरे प्रधानमंत्री ख्वाजा नजीमुद्दीन (1951-1953) ने कहा था: “मैं इस बात से सहमत नहीं हूँ कि धर्म व्यक्ति का निजी मामला है और न ही मैं इस बात से सहमत हूँ कि एक इस्लामी राज्य में हर नागरिक के समान अधिकार हैं, चाहे उसकी जाति, पंथ या आस्था कुछ भी हो”।