Farazi Movement

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फ़राज़ी आंदोलन या अभियान,1819 में पूर्वी बंगाल में हाजी अली हमज़ा अवान के नेतृत्व में आरम्भ एक धार्मिक पुनरुत्थान अभियान था जिसका उद्देश्य गैर-इस्लामी गतिविधियों को त्यागना और मुसलमानों के रूप में अपनी ज़िम्मेदारियों को पूरा करना था। फ़राज़ी आंदोलन की शुरुआत हाजी शरीयतुल्लाह ने की थी। फ़राज़ी आंदोलन 19 वीं शताब्दी का इस्लामी पुनरुत्थानवादी आंदोलन था। फराइज़ी प्रथाओं में कुछ अंतर के साथ ‘हनफ़ी’ विचार का पालन करते थे। फराइज़ी आंदोलन, का मूल उद्देश्य गैर-इस्लामिक प्रथाओं को त्यागना था। यह पूर्वी बंगाल में गैर-इस्लामी प्रथाओं को छोड़ने और मुसलमानों को अपने धार्मिक कर्तव्यों का पालन करने के लिए प्रेरित करने वाला धार्मिक सुधार आंदोलन था, जो पूर्वी बंगाल के ग्रामीण इलाकों में प्रभावी था। यह शुरू में शांतिपूर्ण था लेकिन बाद में जमींदारो के विरुद्ध हिंसक कृषि आंदोलन में परिवर्तित हो गया, चूंकि पूर्वी बंगाल में अधिकांश जमींदार हिंदू थे इसलिए इस आंदोलन में सांप्रदायिकता भी शामिल थी। इसका केंद्र फ़रीदपुर में था। यह आंदोलन वृहत ढाका, बारिसाल, मेमनसिंह और कोमिला के क्षेत्रों में व्यापक था।

फ़राज़ी आंदोलन का आरंभ :

फ़राज़ी आंदोलन की शुरूआत, हाजी शरीयतुल्लाह ने की थी। फ़राज़ी शब्द ‘फ़र्ज’ से लिया गया है जिसका अर्थ है अल्लाह द्वारा निर्धारित अनिवार्य कर्तव्य। इसलिए, फ़राज़ी वे लोग हैं जो अनिवार्य धार्मिक कर्तव्यों को लागू करने का लक्ष्य रखते हैं। हालाँकि,आंदोलन के प्रवर्तक, हाजी शरीयतुल्लाह ने इस शब्द की व्यापक अर्थ में व्याख्या की, जिसमें कुरान के साथ-साथ पैगंबर की सुन्नत द्वारा निर्धारित सभी धार्मिक कर्तव्य शामिल थे।

शरियातुल्लाह ने मक्का की यात्रा की थी, वहाँ वे 20 साल तक रहे और हनफ़ी विचार के एक विचारक, शेख ताहिर सोम्बल से धार्मिक सिद्धांतों का अध्ययन किया। उन्होंने बंगाल के मुसलमानों को इस्लाम के सच्चे सिद्धांतों का पालन करने के लिए एक आंदोलन शुरू किया। ऐतिहासिक कारणों से बंगाल के मुसलमान कई स्वदेशी या स्थानीय रीति-रिवाजों, अनुष्ठानों और समारोहों का पालन कर रहे थे, जो इस्लाम के हनफ़ी सिद्धांतों से बहुत अलग था। बंगाल के ज़्यादातर मुसलमान इस्लाम के मूल सिद्धांतों का पालन भी नहीं करते थे।

शरीउल्लाह ने बंगाल के मुसलमानों को इस्लाम के सच्चे मार्ग पर लाने के लिए, इस्लाम के पाँच मूल सिद्धांतों पर सबसे ज़्यादा बल दिया, शुद्ध एकेश्वरवाद की पूरी स्वीकृति और उसके सख्त पालन पर ज़ोर दिया और मूल सिद्धांतों से सभी विचलनों की निंदा की, जैसे कि ज़िर्क (बहुदेववाद) और बिदत (पापपूर्ण नवाचार)। जन्म, विवाह और मृत्यु से जुड़े कई संस्कार और समारोह जैसे कि छुट्टी, पुट्टी, चिल्ला, शबगश्त जुलूस, फ़ातिहा, मिलाद और उर्स वर्जित थे। संत-पूजा (पीर), पीर के प्रति अत्यधिक श्रद्धा दिखाना, मुहर्रम के दौरान ताज़िया बनाना भी ज़िर्क घोषित किया गया। उन्होंने न्याय, सामाजिक समानता और मुसलमानों के सार्वभौमिक भाईचारे पर ज़ोर दिया।

हाजी शरीयतुल्लाह बंगाल में ब्रिटिश शासन को मुसलमानों के धार्मिक जीवन के लिए हानिकारक माना। हनफ़ी कानून के अनुसरण में कहा कि “बंगाल में विधिपूर्वक नियुक्त मुस्लिम खलीफ़ा या प्रतिनिधि प्रशासक की अनुपस्थिति मुसलमानों को सामूहिक प्रार्थना करने के विशेषाधिकार से वंचित करती है। फ़राज़ियों के लिए, बंगाल जैसे गैर-मुस्लिम राज्य में शुक्रवार की सामूहिक प्रार्थना अनुचित थी।”

फराजी आंदोलन का धार्मिक आधार :

हनफ़ी या हनफ़ीवाद :
यह सुन्नी इस्लाम के भीतर इस्लामी न्यायशास्त्र की चार प्रमुख विचारधारा में से एक है। 8वीं शताब्दी के विद्वान, न्यायविद और धर्मशास्त्री अबू हनीफ़ा (लगभग 699-767 ई.) ने इसे व्याख्यायित किया था, जिनके अनुयायी उनके कानूनी विचारों को मुख्य रूप से उनके दो शिष्यों अबू यूसुफ़ और मुहम्मद अल-शायबानी ने संरक्षित किया था। चार प्रमुख सुन्नी विचारों में सबसे पुराने और सबसे ज़्यादा अनुसरण किए जाने वाले विचार के रूप में, इसे “लोगों की राय का स्कूल” (मधहब अहल अल-राय) भी कहा जाता है। कई हनफ़ी धर्मशास्त्र के ‘मटुरिदी विचार’ का भी पालन करते हैं।
चूंकि सहाबा और सहाबा के उत्तराधिकारियों ने शरिया के विज्ञान को स्थापित करने या इसे अध्यायों या संगठित पुस्तकों में संहिताबद्ध करने पर ध्यान नहीं दिया, बल्कि ज्ञान को प्रसारित करने के लिए अपने स्मरण की शक्ति पर भरोसा किया, अबू हनीफा को डर था कि मुस्लिम समुदाय की अगली पीढ़ी शरिया कानूनों को अच्छी तरह से नहीं समझ पाएगी। उनकी पुस्तकों में तहरा (शुद्धिकरण), सलात (प्रार्थना), इबादत (पूजा) के अन्य कार्य, मुवमालह (सार्वजनिक उपचार), फिर मावारिथ (विरासत) शामिल थे। वस्तुत: इस्लामी साम्राज्य के विस्तार के कारण कानूनी विशेषज्ञों को शरिया को एक संहिताबद्ध रूप देने की आवश्यकता महसूस हुई।

फ़िक़्ह :
फ़िक़्ह अर्थात कुरान और सुन्नत (इस्लामी पैगंबर मुहम्मद और उनके साथियों की शिक्षाएं और प्रथाएं) में बताए गए ईश्वरीय इस्लामी कानून की मानवीय समझ। फ़िक़्ह, इस्लामी न्यायविदों (उलमा) द्वारा कुरान और सुन्नत की व्याख्या (इज्तिहाद) के माध्यम से शरिया का विस्तार और विकास करता है और उनके समक्ष प्रस्तुत प्रश्नों पर न्यायविदों के फैसलों (फतवा) द्वारा इसे लागू किया जाता है। इस प्रकार, जबकि शरिया को मुसलमानों द्वारा अपरिवर्तनीय माना जाता है, फ़िक़्ह को त्रुटिपूर्ण और परिवर्तनशील माना जाता है। फ़िक़्ह इस्लाम में अनुष्ठानों, नैतिकता और सामाजिक कानून के पालन के साथ-साथ आर्थिक और राजनीतिक व्यवस्था से संबंधित है
जिसे अबू हनीफ़ा ने एक अनूठी पद्धति द्वारा अपनी पुस्तकों में तहरा (शुद्धिकरण), सलात (प्रार्थना), इबादत (पूजा) के अन्य कार्य, मुवमालह (सार्वजनिक उपचार) मावारिथ (विरासत) के रूप में शामिल किया। साथ ही उन्होंने अक़ीदा को एक अलग धार्मिक ज्ञान के रूप में भी स्थापित किया। हनफ़ी सिद्धांत का मूल तीसरी हिजरी शताब्दी में संकलित किया गया था।

अब्बासी खलीफा और अधिकांश मुस्लिम राजवंश अपेक्षाकृत अधिक लचीले हनफ़ी फ़िक़्ह को अपनाने वाले शुरुआती राजवंशों में से थे और उन्होंने इसे पारंपरिक मदीना-आधारित फ़िक़्हों (जो सभी कानूनों को कुरान और हदीसों से जोड़ने का पक्षधर था और न्यायविदों के विवेक पर आधारित इस्लामी कानून का विरोध करता था।) पर प्राथमिकता दी। अब्बासिदो ने दूसरी हिजरी शताब्दी से हनफ़ी विचार का संरक्षण किया।
अब्बासी खलीफाओं के संरक्षण में, हनफ़ी विचार इराक में फला-फूला और पूरे इस्लामी जगत में फैल गया। 9वीं शताब्दी तक मुस्लिम स्पेन और ग्रेटर ईरान, जिसमें ग्रेटर खुरासान भी शामिल है, में यह विचारधारा मजबूती से स्थापित हो गई तथा दिल्ली सल्तनत, ख़्वारज़्मियन साम्राज्य, कज़ाख सल्तनत और स्थानीय समानी शासकों सहित कई शासकों ने इसे अपनाया। तुर्क साम्राज्य विस्तार ने इस विचार को भारतीय उपमहाद्वीप और अनातोलिया (तुर्की) में विस्तारित किया, और इसे ओटोमन और मुगल साम्राज्य के मुख्य कानूनी नियमों के रूप में अपनाया गया। 77वें खलीफा और 10वें ओटोमन सुल्तान सुलेमान और 6वें मुगल सम्राट औरंगजेब आलमगीर के शासनकाल के दौरान, हनफी-आधारित अल-कानून और फतवा-ए-आलमगीरी, अधिकांश दक्षिण एशिया के कानूनी, न्यायिक, राजनीतिक और वित्तीय कोड के रूप में मान्य था। आधुनिक तुर्की गणराज्य में, हनफ़ी न्यायशास्त्र को संविधान (अनुच्छेद 136) के माध्यम से धार्मिक मामलों के निदेशालय, दियानेट में निहित किया गया है।

फराजी आंदोलन के सिद्धांत :

पीर और मुरीद जैसी शब्दावली का प्रयोग करने के स्थान पर, फ़रायज़ियों के नेता को उस्ताद, या शिक्षक, और उनके अनुयायियों को ज़ाग्रिद, या छात्र कहा जाता था। तौबर मुसलमान या मुमिन उस व्यक्ति को दिया जाने वाला नाम था जो फ़रायज़ी संप्रदाय में शामिल हो गया हो।

फराजी आंदोलन के धर्मसुधार नियम :
फ़रायज़ी लोग प्रथाओं में कुछ अंतर के साथ हनफ़ी विचारधारा का पालन करते थे।

1.तौबा यानी आत्मा की शुद्धि के उपाय के रूप में पिछले पापों के लिए पश्चाताप करना।

2.फराइज़ के अनिवार्य कर्तव्यों का सख्ती से पालन करना।

3.तौहीद का सख्त पालन

4.उन सभी सांस्कृतिक संस्कारों और समारोहों की निंदा करना, जिनका कुरान और सुन्नत से कोई संबंध नहीं था, उन्हें बिदह अर्थात पापपूर्ण नए आचार व्यवहार के रूप में देखना।

5.भारत, दार अल हरब होने के कारण शुक्रवार की नमाज़ और ईद की नमाज़ सामूहिक रूप से अनिवार्य नहीं थी।

फरायजियों के नेता को उस्ताद या शिक्षक कहा जाता था, और उनके शिष्यों को शागिर्द या छात्र कहा जाता था, न कि पीर और मुरीद जैसे शब्दों का इस्तेमाल किया जाता था। फरायजी संप्रदाय में शामिल होने वाले व्यक्ति को तौबर मुस्लिम या मुमिन कहा जाता था।

फ़राज़ी आंदोलन का स्वरूप :

इस आंदोलन में विशेषकर मुस्लिम भूमिहीन कृषकों या रैयतों के अधिकारों को संरक्षित करने तथा बंगाल के मुसलमानों को इस्लाम के सच्चे सिद्धांतों का पालन करने के लिए प्रेरित करने के उद्देश्य के तहत धार्मिक तथा गहन सामाजिक -आर्थिक और राजनीतिक परिवर्तनों के लिए अभियान चलाया गया। हालाँकि, कुछ मुसलमान, मुख्य रूप से ढाका के कुछ मुस्लिम जमींदार उनके खिलाफ थे, जिसके परिणामस्वरूप ढाका जिले के नयाबारी में दंगा हो गया था।

आंदोलन का प्रसार और स्वरुप :

हाजी शरीयतुल्लाह का नेतृत्व-काल :

हाजी शरीयतुल्लाह और उनके पुत्र मुहसिनउद्दीन अहमद (1819-1862), जिन्हें दुदु मियाँ के नाम से भी जाना जाता था, बंगाल में फ़रायज़ी आंदोलन के प्रमुख नेता थे। इन्होंने ज़मींदारों विशेषकर बहुसंख्यक हिंदू जमींदारो के विरुद्ध बहुसंख्यक मुस्लिम काश्तकारों का समर्थन किया।

जमींदारी प्रथा में भू राजस्व देने वालों पर कई अबवाब लगाए जाते थे। मुगल भारत के दौरान, सरकार द्वारा नियमित करों के अलावा लगाए गए सभी अस्थायी और सशर्त करों और अनियमित अधिरोपणों को अबवाब कहा जाता था। वस्तुत: अबवाब, परगना में भूमि के स्थापित मूल्यांकन के ऊपर रैयत पर लगाए गए सभी अनियमित अधिरोपण थे। कई अबवाब जैसे (दुर्गा एवं काली पूजा के समय) धार्मिक प्रकृति के थे। हाजी शरीयतुल्लाह ने इस पर आपत्ति जताते हुए हस्तक्षेप किया और अपने अनुयायियों को आदेश दिया कि वे जमींदारों को ये कर न दें। हिंदू जमींदारों ने गायों के वध पर प्रतिबंध लगा दिया था, फरायजियों ने अपने मुस्लिम किसान अनुयायियों को इस तरह के प्रतिबंध का पालन न करने तथा ईद उल अजहा (बक़रीद) के अवसर गो-वध करने का आदेश दिया। इन सभी घटनाओं ने फरायजियों और जमींदारों, जो बहुसंख्यक तौर पर हिंदू थे, के बीच तनावपूर्ण संबंधों और साम्प्रदायिकता को जन्म दिया। फ़रायज़ी आंदोलन के दौरान 1838 से 1857 तक पूर्वी बंगाल में दंगे हुए । अधिकांश फ़रायज़ियों ने वहाबी इस्लाम को अपना लिया था।

फरायजी आंदोलन ढाका, फरीदपुर, बेकरगंज, मैमनसिंह, टिप्पेरा (कोमिला), चटगाँव और नोआखली जिलों के साथ-साथ असम प्रांत में भी असाधारण तेज़ी से फैला। हालाँकि, इस आंदोलन ने उन जगहों पर सबसे ज़्यादा गति पकड़ी जहाँ किसान मुस्लिम और ज़मींदार हिंदू थे तथा नील बागानों के मालिक यूरोपीय थे। बंगाल के विभिन्न भागों में इस्लामी नेतृत्व वाले फरायजी आंदोलन के समय 1837 में, बंगाल के इन क्षेत्रों के हिंदू जमींदारों और हाजी शरीयतुल्लाह के समर्थकों के मध्य संघर्ष बढ़ गया। यूरोपीय नील बागान मालिक भी इस आंदोलन का विरोध कर रहे थे। फरीदपुर में कृषि अशांति को भड़काने के आरोप में शरीयतुल्लाह को एक से अधिक मामलों में पुलिस ने हिरासत में रखा था।

मुहसिनुद्दीन अहमद उर्फ दुदू मियाँ का नेतृत्व- काल :

हाजी शरीयतुल्लाह की मृत्यु के बाद उनके पुत्र मुहसिनुद्दीन अहमद उर्फ दुदू मियाँ (1819-62) ने आंदोलन को धार्मिक सुधार से कृषक-जमींदार संबंधों की दिशा में मोड़ दिया, जिसका आधार धर्म था। उन्होंने किसानों को भूस्वामियों के विरुद्ध एकजुट किया तथा आंदोलन को और अधिक उग्र, कृषि प्रधान स्वरूप प्रदान कर तथा एक कुशल संगठनात्मक संरचना स्थापित करने में सफल रहे। दुदू मियाँ के अनुसार ज़मीन उन लोगों की होती है जो उस पर खेती करते हैं। प्रतिशोध में जमींदारों और नील किसानों ने दूदू मियां के खिलाफ आरोप दायर करके उन्हें नियंत्रण में रखने का प्रयास किया। हालाँकि, किसानों के बीच उसका सशक्त प्रभाव हो जाने से अदालतों को शायद ही कभी दूदू मियाँ के खिलाफ कोई गवाह मिलता था। दूदू मियाँ की प्रारंभिक सफलताओं ने जनता को उसका समर्थक बना दिया और क्षेत्र के प्रभावी मुस्लिमों ने मुख्यत: हिंदू ज़मींदारों के विरुद्ध दूदू मियाँ की सुरक्षा मांगी।

दुदू मियाँ ने इस आंदोलन को सशक्त और सुव्यवस्थित ढंग से संचालित करने के लिए एक प्रशासनिक ढांचा स्थापित किया। ऐसा माना जाता था कि इस आंदोलन के रूप में उनका उद्देश्य ब्रिटिश शासित क्षेत्र में एक अलग राज्य की स्थापना करना था।

फरायजी खिलाफत – संगठन और उद्देश्य :

फरायजी समाज को संगठित करने में, दुदू मियाँ के दो उद्देश्य थे –
(i) जमींदारों और यूरोपीय नील बागान मालिकों के उत्पीड़न से फरायजी किसानों की रक्षा करना।
(ii) फरायजी विचार से संबंधित लोगो के लिए सामाजिक न्याय सुनिश्चित करना।

पहले उद्देश्य को हासिल करने के लिए,उसने लाठी से लड़ने वाले (लाठियाल) लोगों की एक स्वयंसेवी टुकड़ी बनाई और उनके नियमित प्रशिक्षण की व्यवस्था की।

दूसरे उद्देश्य को हासिल करने के लिए उसने फरायजी नेतृत्व में स्थानीय सरकार या पंचायत की पारंपरिक प्रणाली को पुनर्जीवित किया। पहले उद्देश्य को सियासती या राजनीतिक शाखा और दूसरे को दीनी या धार्मिक शाखा के रूप में जाना जाता है, जिन्हें बाद में एक पदानुक्रमित खिलाफत प्रणाली में मिला दिया गया।

फरायजी खिलाफत : संगठन

फरायजी खिलाफत व्यवस्था का उद्देश्य सभी फरायजी लोगों को दुदु मियां के अधिकृत प्रतिनिधियों के सीधे नियंत्रण में लाना था। दुदू मियां खलीफाओं के इस पदानुक्रम में शीर्ष पर था। उसने खलीफाओं के तीन स्तर नियुक्त किए:
(i) उपरस्थ खलीफा,
(ii) अधीक्षक खलीफा और
(iii) गांव खलीफा।

दुदू मियाँ ने फरायजी बस्ती को 300 से 500 परिवारों की छोटी-छोटी इकाइयों में विभाजित किया और प्रत्येक इकाई पर एक गाँव खलीफा नियुक्त किया। ऐसी दस या उससे ज़्यादा इकाइयों को एक साथ मिलाकर एक समूह गिरद (Gird) बनाया गया, जिसे अधीक्षक खलीफा के अधीन रखा गया।

अधीक्षक खलीफा को एक आदेशपालक और एक संदेश वाहक या रक्षक दिया जाता था, गांव खलीफा, उस्ताद के साथ संपर्क बनाए रखने के लिए अधीक्षक खलीफा की सहायता करता था। उपरस्थ खलीफा उस्ताद के सलाहकार थे और फरायजी आंदोलन के मुख्यालय फ़रीदपुर में उनके साथ रहते थे।

फरायजी खिलाफत : कार्य ओर कार्यक्रम

गाँव खलीफा, मुस्लिम समुदाय के नेता के रूप में कार्य करता था जिसका कर्तव्य धार्मिक शिक्षा का प्रसार करना, धार्मिक नियमों को लागू करना और उनके अनुरूप कार्य तथा मस्जिदों की देखरेख, करना और बड़ों के परामर्श से न्याय करना था। उसके लिए बच्चों को कुरान और प्राथमिक पाठ पढ़ाने के लिए एक मकतब बनाना भी आवश्यकत था।

अधीक्षक खलीफा का मुख्य कार्य गांव खलीफाओं की गतिविधियों की निगरानी करना, अपने गिरद के फराइजियों के कल्याण की देखभाल करना, धर्म के मूल सिद्धांतों का प्रचार करना और सबसे बढ़कर, गांव खलीफाओं के निर्णयों के खिलाफ अपील न्यायालय के रूप में बैठना था। ऐसे मामलों में, वह अपने गिरद के खलीफाओं की परिषद में बैठकर अपील की सुनवाई करता था। सभी मामलों में, धार्मिक और राजनीतिक दोनों ही मामलों में, दुदू मियां का निर्णय अंतिम होता था और उस्ताद के रूप में वह अंतिम अपील न्यायालय के रूप में भी कार्य करता था।
दूदू मियाँ की शुरुआती जीत ने इस आंदोलन की ओर मुस्लिम समुदाय के प्रभुत्वशाली लोगों का ध्यान आकर्षित किया और उन्होंने जमींदारों से दूदू मियाँ की सुरक्षा की माँग की।

वाइज, जेम्स 1860 के दशक में ढाका के सिविल सर्जन और एक लेखक थे। उन्हें न केवल चिकित्सा विज्ञान बल्कि इतिहास में भी गहरी दिलचस्पी थी। वाइज को बांग्लादेश में मानवशास्त्र के अध्ययन का अग्रणी माना जा सकता है। पूर्वी बंगाल के लोगों के व्यवसायों के विषय में उनके द्वारा दिया गया विवरण अत्यंत सार्थक है। उनके विवरणों से बंगाल के सामाजिक इतिहास के लेखन के लिए महत्वपूर्ण रूपरेखाएँ प्राप्त की जा सकती हैं। जेम्स वाइज ने लिखा है कि “पूर्वी बंगाल की पंचायतों का लोगों पर बहुत प्रभाव था और फरैजी गांवों में, यह बहुत ही दुर्लभ था कि क्षेत्र के भीतर की गई हिंसा या हमले का कोई भी मामला नियमित अदालतों तक पहुँच पाता था। उनके अनुसार दुदु मियाँ विवादों का निपटारा करते थे, संक्षिप्त न्याय करते थे और किसी भी हिंदू, मुस्लिम या ईसाई को दंडित करते थे जो मामले को उनके सामने मध्यस्थता या न्याय के लिए लाने के बजाय, स्थानीय सरकारी, ‘मुंसिफ कोर्ट’,में ऋण वसूली के लिए मुकदमा लाने की हिम्मत करता था।

अंतिम चरण :
1857 के भारतीय स्वतंत्रता संग्राम के दौरान, ब्रिटिश प्रशासन ने दुदू मियां को, कोलकाता की अलीपुर जेल में कैद कर दिया। उसे 1859 में रिहा कर दिया गया, पुनः गिरफ्तार किया गया और अंततः 1860 में रिहा कर दिया गया।
दूदू मियां की मृत्यु 1862 में 42-43 वर्ष की आयु में ढाका में हुई, लेकिन इससे पहले उन्होंने अपने नाबालिग बेटों गयासुद्दीन हैदर और अब्दुल गफूर उर्फ नया मियां की देखभाल के लिए एक संरक्षक मंडल की नियुक्ति की थी , जो उनके उत्तराधिकारी बने। 1860 में दादू मियां की मृत्यु के बाद यह आंदोलन रुक गया।

इस मंडल ने कमजोर होते आंदोलन को टूटने से बचाया। नया मियाँ के परिपक्व होने तक इसने अपनी खोई हुई ताकत को वापस नहीं पाया। मदारीपुर जिले के तत्कालीन उप-विभागीय अधिकारी नवीनचंद्र सेन ने फरायजी नेताओं के साथ आपसी मदद के लिए गठबंधन करना समझदारी भरा कदम समझा, जिन्होंने बदले में सरकार के प्रति सहयोग की भावना दिखाई।

1884 में नया मियाँ की मृत्यु के बाद, दुदु मियाँ के तीसरे और सबसे छोटे बेटे सैयदुद्दीन अहमद को फराइज़ियों ने अपना नेता घोषित किया। इस दौरान, एक अन्य सुधारवादी समूह, तैयुनियों के साथ फराइज़ियों का संघर्ष चरम पर पहुँच गया और पूर्वी बंगाल में दोनों विचारधाराओं के बीच धार्मिक बहस आम बात हो गई। सैयदुद्दीन अहमद को ब्रिटिश सरकार ने खान बहादुर की उपाधि से सम्मानित किया। 1905 में, बंगाल के विभाजन के सवाल पर,उन्होंने विभाजन के पक्ष में नवाब सलीमुल्लाह को समर्थन दिया, लेकिन 1906 में उनकी मृत्यु हो गई।

खान बहादुर सैयदुद्दीन के बाद उनके सबसे बड़े बेटे रशीदुद्दीन अहमद उर्फ बादशाह मियां ने गद्दी संभाली। अपने नेतृत्व के शुरुआती वर्षों में बादशाह मियां ने सरकार के प्रति सहयोग की नीति बनाए रखी। हालांकि, बंगाल के विभाजन के निरस्त होने से वे ब्रिटिश विरोधी हो गए और उन्होंने खिलाफत और असहयोग आंदोलनों में भाग लिया। पाकिस्तान की स्थापना के तुरंत बाद उन्होंने नारायणगंज में फराइजियों का एक सम्मेलन बुलाया और पाकिस्तान को दार-उल-इस्लाम घोषित किया और अपने अनुयायियों को जुमे और ईद की सामूहिक नमाज़ अदा करने की अनुमति दी। वस्तुत: यह आंदोलन हिंदू जमींदारों और भू-स्वामियों तथा यूरोपीय नील उत्पादकों के मध्य सामाजिक-आर्थिक और सांस्कृतिक विभेद तथा जमींदारो – रैयतों के मध्य परस्पर विरोधी हितों से व्याप्त विद्वेष के कारण हुई प्रतिक्रिया थी, जिसका आधार धार्मिक था।

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