Harshacharita

हर्षचरित की विवेचना

This entry is part 2 of 3 in the series बाणभट्ट : हर्षचरित

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‘हर्षचरित’ की रचना का उद्देश्य

एक इतिहासकार का उद्देश्य, अतीत का सत्यान्वेषण होता है लेकिन ‘बाणभट्ट’ द्वारा ‘हर्षचरित’ की रचना का औचित्य सिद्ध करने के प्रयास से यह संकेत मिलता है कि इसमें उल्लेखित कुछ तथ्य यथार्थ से परे हैं।

‘श्रीराम गोयल’ ने अपनी पुस्तक, “हर्ष शिलादित्य” – “एक नवीन राजनीतिक सांस्कृतिक अध्ययन”, में ‘हर्षचरित’ की रचना के उद्देश्यों को समझने पर बल दिया है। ‘हर्षचरित’ की अंतिम पंक्तियों में ‘हर्ष’ के राजगद्दी पर बैठने, ‘शशांक’ के विरुद्ध उसकी सेना के प्रयाण एवं जंगल में सती होने के लिए चिता में प्रवेश करने के पूर्व ‘राज्यश्री’ को बचा लेने संबंधी उल्लेख है। ‘राज्यश्री’ का उल्लेख केवल हर्ष की बहन के रूप में नहीं बल्कि “राज्य रूपी लक्ष्मी” की प्राप्ति से है।विद्वानों का मत है कि ‘बाण’ द्वारा ‘हर्षचरित’ की रचना, ‘हर्ष’ को अपने अग्रज ‘राज्यवर्धन’ के हत्या में लिप्त होने के परिवाद से बचाने और उसके सत्ताग्रहण को वैधता प्रदान करने के उद्देश्य से की गई थी। ‘हर्षचरित’ के सप्तम उच्छवास में ‘बाण’ ने स्पष्ट लिखा है कि, “अग्रज के वध का कलंक मिटाने के लिए वह (हर्ष), इंद्र के समान व्याकुल थे।”

‘हर्ष’ के राज्यारोहण को वैधता प्रदान करने का प्रयास कथानक के विभिन्न चरणों में दृष्टिगोचर होता है। ‘हर्षचरित’ के तृतीय उच्छवास में ‘बाणभट्ट’ ने लिखा है –  “पुष्यभूति को वर देते हुए लक्ष्मी कहती हैं, ‘तू एक महान राजवंश का कर्ता होगा’ सूर्य और चंद्रमा के बाद तू तीसरा स्थान प्राप्त करेगा”। इस प्रसंग के द्वारा ‘बाण’ ने ‘पुष्यभूति’ वंश को देवी लक्ष्मी के आशीर्वाद से संपूर्ण ‘आर्यावर्त’ का शासक बनने के योग्य दर्शाया है। कथानक के द्वितीय चरण में, मृत्यु शैया पर पड़े ‘प्रभाकर वर्धन’ ने ‘हर्ष’ को ही शासक बनने के योग्य कहा है, तृतीय चरण में राजा बनने के प्रति ‘राज्यवर्धन’ की अनिच्छा का उल्लेख है, यदि ‘सि-यू-कि’ और अन्य समकालीन स्रोत नहीं होते तो ‘राज्यवर्धन’ के राजा बनने संबंधित तथ्य ‘बाणभट्ट’ की राज भक्ति तले दब जाते। चतुर्थ चरण में ‘हर्ष’ के राजगद्दी संभालने के साथ यह भी उल्लेखित है कि, ‘हर्ष’ स्वयं राजा बनना नहीं चाहता था “(अनिच्छनतमपि बलादारोपितमिव सिंहासनम)”  परन्तु ‘मौखरि’ एवं ‘पुष्यभूति’ मंत्रियों के दबाव में उसे यह निर्णय लेना पड़ा लेकिन उसके शासक बनते हैं राज्य का चतुर्दिक विकास हुआ।

सर्वमान्य तथ्य है की चरित् ग्रंथों में वास्तविक घटनाओं को छुपाने की चेष्टा होती है। ‘हर्षचरित’ की रचना के उद्देश्य को भी इसी आलोक में देखा जा सकता है इस रचना में दो कथानक है-

प्रथम, ‘हर्षवर्धन’ के विषय में, तथा

दूसरा, ‘बाणभट्ट’ के विषय मे।

‘बाणभट्ट’ ने ‘हर्षवर्धन’ के राज्यारोहण को वैधता प्रदान की तथा स्वयं को आरोप मुक्त करने के लिए ‘हर्षचरित’ के तृतीय उच्छवास में लिखा, “हर्षवर्धन का चरित् देवगुरु ‘बृहस्पति’ के लिए भी अगोचर (दृश्यता से परे) या अनजान है तथा ‘सरस्वती’ भी इसका वर्णन अपनी सामर्थ्य से भारी समझती हैं, तो मुझ जैसे साधारण व्यक्ति का कहना ही क्या?”  ‘बाणभट्ट’ ने यह भी उल्लेखित किया है कि, “उसने विचार पूर्वक नहीं बल्कि कुछ लोगों के आग्रह पर हर्ष के विषय में लिखा” अर्थात उसके द्वारा हर्ष से संबद्ध नकारात्मक पक्ष पर पर्दा डालने की कोई संभावना नहीं है।

तथ्यों का चयन

‘हर्षचरित’ प्राचीन इतिहास-पुराण  परंपरा में लिखित पुस्तक है। जिसमें व्यक्तियों एवं घटनाओं के साथ-साथ विभिन्न मिथकों एवं आख्यानो को भी जगह दी गई है। इसमें तथ्यों का संग्रह – प्रत्यक्ष अनुभव और परंपरागत अनुश्रुतियों के आधार पर किया गया है। अतः तथ्य संग्रह का आधार दोषपूर्ण है, क्योंकि ‘हर्ष’ की पक्षधरता के कारण “प्रत्यक्ष अनुभव” की विधा और अन्य किसी स्रोत से सत्यापित नहीं होने के कारण “परंपरागत अनुश्रुतियों” की विधा संदेहास्पद है।

संपूर्ण ग्रंथ में ‘बाणभट्ट’ ने दैवी शक्तियों को महत्व देकर यथा, यह लिखकर की ” ‘हर्ष’ को स्वयं भगवान ‘शिव’ ने पृथ्वी पर शासन करने के लिए भेजा था।” मानवीय कर्म की स्वायत्तता को नकारने या नगण्य ठहराने तथा भाग्य को प्रबलसिद्ध करने का प्रयास किया है। ‘श्रीराम गोयल’ ने ‘हर्ष’ और ‘भास्करवर्मा’ के संबंधों का विवेचन कर ‘राजतरंगिणी’ के आधार पर सिद्ध किया है कि ‘भास्करवर्मा’ द्वारा हर्ष के पास वरुण का ‘भभोग’ नामक ‘दिव्य-छत्र’ भेजने संबंधी ‘बाण’ का विवरण एक लोककथा को ‘हर्ष’ के चक्रवर्तित्व को प्रमाणित करने हेतु मनमाने ढंग से प्रस्तुत करने का प्रयास मात्र है।

तथ्यों का मूल्यांकन

इतिहास लेखन के मापदंडों के अनुरूप तथ्यों को समीक्षित कर साक्ष्य के रूप में प्रस्तुत करने के विपरीत ‘बाणभट्ट’ ने ‘हर्ष’ के राज्यारोहण से संबद्ध तथ्यों को विवेचित नहीं किया यथा – ‘राज्यवर्धन’ द्वारा ‘हर्ष’ से राज्य-ग्रहण का अनुरोध करने पर, ‘हर्ष’ ने अपनी अनिच्छा शब्दों में प्रकट क्यों नहीं की तथा उसकी यह मनोवृति कई दशकों के बाद ‘बाण’ को कैसे ज्ञात हुई। ‘राज्यवर्धन’ की हत्या के बाद उसके प्रधान सहायक ‘भंडि’ को लापरवाही के लिए ‘हर्ष’ द्वारा प्रताड़ित नहीं करने संबंधित तथ्य को और साथ ही ‘ग्रहवर्मा’ के मरणोपरांत उसकी नि: संतान पत्नी ‘राज्यश्री’ का कन्नौज के राजसिंहासन पर अधिकार किस नियम के तहत उचित था। इस तथ्य को भी नजरअंदाज कर ‘बाणभट्ट’ ने ‘हर्ष’ के ‘थानेश्वर’ और ‘कन्नौज’ का शासक बनने को वैधता प्रदान की।

‘हर्षचरित’ में कथानक के प्रस्तुतीकरण की शैली 

भारत में चरित् साहित्य की परंपरा है, जिसका उद्देश्य नायकों का महिमामंडन होता है। चरित साहित्य लेखन की विधा में चार तत्व होते हैं-

प्रारंभ

कथानक का विकास

उद्देश्य की निश्चितता

उद्देश्य की पूर्ति

‘हर्षचरित’ के विश्लेषण से स्पष्ट होता है कि ‘बाणभट्ट’ का निष्कर्ष पूर्व निर्धारित था, अर्थात उसे ‘हर्ष’ के राज्यारोहण को वैधता प्रदान करना था। ‘हर्षचरित’ में राजनीतिक संबंध, युद्ध, दरबारी षड्यंत्र, अन्वेषण, राज्य प्राप्ति, सती-प्रथा, राज्य-विस्तार, ऐतिहासिक चरित्र आदि सभी ऐतिहासिक तथ्य मिलते हैं किंतु उनका कोई काल क्रमानुसार वर्णन नहीं है, यथा ‘राज्यवर्धन’ द्वारा ‘ग्रहवर्मा’ की हत्या का प्रतिशोध लेने के लिए प्रस्थान करने और ‘राज्यवर्धन’ की हत्या के बीच के समय के लिए ‘बाण’ द्वारा ‘बहुत दिन’ शब्दों का प्रयोग तथा ‘हर्ष’ द्वारा दिग्विजय के लिए प्रयाण के मध्यवर्ती काल का उल्लेख “कुछ दिन बीत गए” शब्दों से करना इन घटनाओं के समय को अनिश्चित कर देते हैं। ‘बाण’ ने ‘गौड़’ एवं ‘मालव’ शासकों का नाम भी नहीं दिया है। भूमि को ‘गौड़ों’ से शून्य करने के ‘हर्ष’ के निश्चय का उल्लेख करने के बाद ‘बाण’ ने गौडो के शासक एवं राजनीति के विषय में कोई विवरण नहीं दिया है। उन्होंने विंध्यवन में ‘हर्ष’ द्वारा ‘राज्यश्री’ की तलाश का विवरण ना देकर ‘विंध्य-पर्वत’ का सूक्ष्म वर्णन किया है। वस्तुतः ‘बाण’ का उद्देश्य घटनाओं का यथार्थ प्रस्तुतीकरण नहीं बल्कि ‘हर्ष’ द्वारा विशिष्ट लक्ष्य की प्राप्ति का उल्लेख था, जिसमें घटनाएं अनिवार्यत: परिणत होती हैं। अतः ‘बाण’ ने एक इतिहासकार की भांति तथ्यों को विवेचित नहीं बल्कि इतिहास लेखन की मूल भावना के विपरीत अपने उद्देश्य के अनुरूप तथ्यों का चयन कर पूर्व-निर्धारित निष्कर्ष की पुष्टि की।

लाभ प्राप्ति

हर्षचरित की रचना के लिए ‘बाण’ द्वारा लाभ प्राप्ति की संभावना इसलिए भी प्रबल है, क्यूंकि  ‘बाणभट्ट’ राज्याश्रित विद्वान था। अतः ‘हर्षचरित’ का यह उल्लेख कि “कृष्ण द्वारा ‘हर्ष’ से मिलने का संदेश” प्राप्त होने पर राज सेवा के प्रति व्यक्त ‘बाण’ की अनिच्छा उसका मिथ्या दंभ था। प्रथम भेंट में ‘हर्ष’ ने ‘बाण’ को भुजंग कह कर अपमानित किया था। लेकिन कुछ दिनों के बाद ‘हर्ष’ उससे प्रसन्न हो गया। ‘बाण’ द्वारा इस विचार परिवर्तन से संबद्ध कारणों का उल्लेख नहीं करने से संभावित है, कि ‘हर्ष’ को भातृहंता के परिवाद से बचाने के लिए एक ग्रंथ की रचना करने की, ‘बाण’ द्वारा प्रदत्त स्वीकार्यता ‘हर्ष’ की प्रसन्नता के मूल में थी। जिसके लिए उसे ‘हर्ष’ से करोड़ों मुद्राएं पाने की अनुश्रुति फैली।

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