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प्राचीन सप्तांगिक राज्य और आधुनिक प्रभुसत्तात्मक राज्य : विवेचन

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‘अर्थशास्त्र: में राज्य के सातों अंगों के पारस्परिक संबंधों पर प्रकाश डाला गया है। इसके अनुसार हर पूर्ववर्ती अंग,परवर्ती अंग से अधिक महत्वपूर्ण है – यथा, अमात्य-जनपद से, जनपद-दुर्ग से,  दुर्ग-कोष से एवं कोष-दंड से अधिक महत्वपूर्ण है। ‘कौटिल्य’ के अनुसार, ‘स्वामी’ सभी अंगों में सर्वाधिक महत्वपूर्ण है, क्योंकि यथेष्ट गुणों से संपन्न होने पर वह अन्य अंगों को भी उनके लिए निर्धारित गुणों से संपन्न बना सकता है। अन्यथा उसके अयोग्य होने पर अन्य अंगों के गुणों से किसी भी अर्थ की सिद्धि नहीं होगी।

‘मौर्योत्तर’ और ‘गुप्त काल’ में राज्य के सात अंगों के पारस्परिक महत्व के संदर्भ में राजनीतिक विचारकों के मत में परिवर्तन दृष्टिगत होता है। ‘मनु’ के अनुसार, किसी समय विशेष पर अलग-अलग अंग अन्य अंगों की अपेक्षा सामने आए प्रयोजन को पूरा करने के कारण अधिक महत्वपूर्ण हो जाता है। ‘शांतिपर्व’ और ‘कामंदक नीतिसार’ में सातों अंगों को एक दूसरे का पूरक बताया गया है।  मार्क्सवादी इतिहासकार,  ‘रामशरण शर्मा’ के अनुसार, “कौटिल्य’ द्वारा सप्तांगों में,  ‘स्वामी’ को सर्वाधिक महत्वपूर्ण बताना मौर्यकालीन सुदृढ़ केंद्रीकृत  राजतंत्र का प्रमाण है। जबकि मौर्योत्तर कालीन विचारक, ‘मनु’ का मत ऐसे संक्रमण-काल का द्योतक है, जब ‘राजा’ महत्वपूर्ण और महत्वहीन दोनों था। जबकि ‘शांतिपर्व’ और ‘कामंदक’  ऐसी वस्तु स्थिति को प्रतिबिंबित करते हैं, जब राजतंत्रात्मक शासन के बावजूद ‘राज-शक्ति’ का महत्व कुछ अंशों में तिरोहित होने और सामंती राज्यों का उदय होने से  केंद्रीकृत राज्य के सिद्धांत का क्षरण प्रारंभ हो गया था।”

राज्य का उपरोक्त सप्तांग सिद्धांत विशुद्धत: ब्राह्मण विचारधारा की उपज है क्योंकि बौद्ध चिंतन में राज्य का एकमात्र विशिष्ट लक्षण ‘कर’ को माना गया है। राज्य विषयक  प्राचीन भारतीय और मार्क्सवादी अवधारणाओं में ‘कौटिल्य’ के द्वारा राज्य के अंग के रूप में अमात्य, दंड और कोष के पर्याय का उल्लेख मार्क्सवादी विचारक ‘एंगेल्स’ के द्वारा क्रमश: सरकारी अधिकारी ,सरकार की शक्ति और कराधान के तौर पर करना समानता को दर्शाता है। साथ  हीं सामान्यतः आधुनिक काल में राज्य के चार घटक – प्रभुसत्ता, क्षेत्र, सरकार और जनसंख्या माने जाते हैं, जो राज्य के सप्तांग सिद्धांत के तहत राज्य के अंगों क्रमशः  – स्वामी, अमात्य और जनपद के अंतर्गत आ जाते हैं। स्पष्ट है कि, ‘सप्तांग सिद्धांत’ के द्वारा ‘राज्य’ जैसी अमूर्त, निराकार और भावात्मक धारणा को मूर्त रूप देने में भारतीय राजनीतिक विचारक सफल सिद्ध हुए हैं।

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