Saptanga Theory

कौटिल्य के सप्तांग सिद्धांत में राज्य के विभिन्न अंग

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1. स्वामी

‘सप्तांग सिद्धांत’ से संबंधित सभी स्रोत ग्रंथों में, राज्य के प्रधान के लिए ‘स्वामी’ शब्द का उल्लेख हुआ है। जिसका अर्थ है, अधिपति। ‘कौटिल्य’ द्वारा वर्णित व्यवस्था में, राज्य-प्रधान को अत्यंत उच्च स्थिति प्रदान की गई है। उसके अनुसार ‘स्वामी’ को अभिजात्य, प्रज्ञावान, शिक्षित, उत्साही, युद्ध कला में चतुर तथा अन्य उत्तम चारित्रिक गुणों से संपन्न होना चाहिए तथा काम, क्रोध ,लोभ,मोह आदि दुर्गुणों से दूर रहना चाहिए। कौटिल्य के अनुसार स्वामी के दो मुख्य कर्तव्य होते हैं – प्रथम, उसे अपने प्रजाजनों के सुख और हित पर पूर्ण ध्यान देना चाहिए तथा द्वितीय, अन्य राज्यों के क्रियाकलापों पर तीक्ष्ण दृष्टि रखनी चाहिए ताकि उसके राज्य पर खतरा उत्पन्न ना हो। कौटिल्य ने राजा की प्रजा के प्रति नैतिक कर्तव्यों तथा राजत्व में निहित “प्रजा की भलाई के लिए कार्य करने की वचनबद्धता” का उल्लेख ‘रक्षण-पालन’ और  ‘योग-क्षेम’  के रूप में किया है। उसके अनुसार प्रजा के हित में ‘स्वामी’ का हित और प्रजा की भलाई में उसकी भलाई होती है।

2. अमात्य

 राज्य के दूसरे अंग के तौर पर ‘अमात्य’ का उल्लेख, सभी प्राचीन ग्रंथों में इसी रूप में हुआ है। ‘अर्थशास्त्र’ के अनुसार, ‘अमात्य’  एक अस्थाई ‘सेवा-संवर्ग’ के सदस्य थे तथा इसी संवर्ग से प्रधान पुरोहित, मंत्री, समाहर्ता , कोषपाल, दीवानी और फौजदारी मामलों की देखरेख के लिए जिम्मेदार अधिकारियों, अंत:पुर के प्रबंध अधिकारियों, दूत, विभिन्न विभागीय अधीक्षको आदि उच्च पदाधिकारियों की नियुक्ति की व्यवस्था की गई थी। ‘कौटिल्य’ का कथन है, ‘अमात्यों’  की संख्या इनके नियोक्ता की क्षमता पर निर्भर होनी चाहिए तथा देश-काल और कार्य की आवश्यकता के अनुसार किसी को भी ‘अमात्य’ नियुक्त किया जा सकता है। ‘शांतिपर्व’ में :अमात्यओ’  की संख्या 37 और ‘मंत्रियों’ की संख्या 8 बताई गई है मंत्रिपरिषद में मंत्रियों की संख्या ‘मनु’ ने 12, ‘बृहस्पति’ ने 16 एवं :शुक्राचार्य’ ने 20 निर्धारित की है लेकिन ‘कौटिल्य’ के अनुसार ‘स्वामी’ को तीन या चार मंत्रियों से परामर्श लेना चाहिए।

3. जनपद

 राज्य का तीसरा अंग ‘जनपद’ है। इसका शाब्दिक अर्थ  ‘जनजातीय बस्ती’ होता है। मौर्योत्तर ग्रंथों ‘मनुस्मृति’ एवं ‘विष्णु स्मृति’ में ‘जनपद’ का उल्लेख ‘राष्ट्र’ के रूप में हुआ है तथा गुप्तकालीन विधिग्रंथ  ‘शांति पर्व’ में मात्र ‘जन’ के रूप में हुआ है। ‘अर्थशास्त्र’ की परिभाषा के अनुसार, ‘जनपद’ में भू-भाग और जनसंख्या दोनों का समावेश होता है। इसके अनुसार भू- भाग में अच्छी जलवायु, चारागाह, उपजाऊ भूमि ,जंगल, विकसित जल एवं स्थल मार्ग, देवालय ,विश्राम-गृह, नदियां एवं खनिज पदार्थ होने चाहिए। साथ ही इसमें ऐसे परिश्रमी कृषकों का निवास होना चाहिए, जो ‘कर’ और ‘दंड’ का बोझ वहन करने की क्षमता रखते हैं। इसमें बुद्धिमान मालिकों और निम्न वर्गीय व्यक्तियों की बहुलता रहनी चाहिए तथा इसकी प्रजा स्वामी भक्त और निष्ठावान होनी चाहिए।

‘कामनदक’ ने भी भूभाग में – शूद्रों, शिल्पियों, व्यापारियों तथा परिश्रमी कृषकों के निवास को आवश्यक कहा है। गुप्तकालीन, ‘मत्स्य’ , ‘अग्नि’ और ‘विष्णुधर्मोत्तर’ पुराणों में वर्णित है कि, राजा को ऐसे देश में रहना चाहिए जिसमें ज्यादातर ‘वैश्य’ और  ‘शूद्र’ , थोड़े ‘ब्राह्मण’ और अधिक संख्या में भाड़े के ‘श्रमिक’ हों। स्पष्टत: ‘सप्तांग सिद्धांत: से संबद्ध सभी स्रोतों में ‘जनपद’ की जनसंख्या में उत्पादकों की अधिकता पर बल दिया गया है।

सामान्यतः इनमें भू-भाग का आकार या जनसंख्या निर्धारित नहीं की गई है लेकिन ‘कौटिल्य’ का कथन है कि जनपद —  गांव, संग्रहण, खार्वटिक , द्रोणमुख, स्थानीय एवं निगम में विभक्त होता है। ‘कौटिल्य’ के अनुसार, – “भू प्रदेश के उपजाऊ भागों में एक या दो कोसों के अंतर पर ‘गांव’ बसाने चाहिए, न्यूनतम 100 और अधिकतम 500 परिवारों से ‘गांव’ का निर्माण होना चाहिए, 10 गांव को मिलाकर बड़ा गांव ‘संग्रहण’, तथा 200 गांव के बीच ‘खार्वटिक’ नामक नगर विशेष बसाना चाहिए, 400 गांवों के बीच ‘द्रोणमुख’ नामक उपनगर विशेष एवं 800 गांवों के मध्य में ‘स्थानीय’ नामक नगर बसाना चाहिए।”

4. दुर्ग

राज्य का ‘कौटिल्य’ द्वारा उल्लेखित चतुर्थ अंग ‘दुर्ग’ है। ‘मनु’ ने इसे ‘पुर’ के रूप में सप्तांग में तीसरा स्थान दिया है। ‘शांतिपर्व’ में ‘पूर्’ को राजधानी के अर्थ में प्रयुक्त किया गया है। ‘कौटिल्य’ के अनुसार राज्य की सुरक्षा के लिए सुदृढ़ दुर्ग आवश्यक है। ये दुर्ग हैं – ‘औदक दुर्ग (जल या गहरी खाई से घिरा)’ , ‘पर्वत दुर्ग (पर्वत श्रेणियों से घिरा)’ , ‘धान्यवन दुर्ग (मरुस्थलीय प्रदेश में बना)’ , ‘वन दुर्ग (बीहड़ जंगलों से घिरा)’ । ‘कौटिल्य’ ने राजधानी में मुख्य दुर्ग के निर्माण तथा उसकी संरचना का  विवरण दिया है। उसके अनुसार ‘दुर्ग’ मगरमच्छ और कमल से भरी तीन खाईयों से घिरा होना चाहिए तथा शत्रु सेना द्वारा दुर्ग का घेरा डालने के समय आवश्यक सामानों की आपूर्ति एवं आवागमन के लिए दुर्ग में गुप्त द्वार होने चाहिए। दुर्ग की पत्थर से बनी चारदीवारी होनी चाहिए और दुर्ग तक पहुंचने के मार्ग में सैनिकों की तैनाती की जानी चाहिए।

‘अर्थशास्त्र’ में वर्णित है कि, ” राजधानी केंद्रीय स्थान पर बनाई जानी चाहिए इसके निर्माण योजना में विभिन्न वर्णों के लोगों, कारीगरों और देवताओं विशेषकर शिल्पीयों के लिए अलग-अलग क्षेत्र छोड़े जाने चाहिए।”

5. कोष

‘ कोष’ , ‘अर्थशास्त्र’ और अन्य स्रोतों में पांचवें अंग के रूप में उद्धृत है। राज्य के प्रत्येक कार्य के लिए धन अत्यावश्यक है। ‘कौटिल्य’ ने कृषि, पशुपालन और व्यापार को लोगों की आजीविका का मुख्य साधन तथा भूमि को राजस्व का प्रमुख स्रोत माना है। ‘कौटिल्य’ के अनुसार, कोष का संग्रह, धर्मपूर्वक एवं न्याय संगत विधि से अन्न के षष्ठ भाग और व्यापारिक वस्तुओं के दशमांश को ग्रहण कर होना चाहिए। साथ हीं, उसमें प्रचुर सोना, चांदी, बहुमूल्य रत्न और मुद्राओं का रहना आवश्यक है क्योंकि कोष के अभाव में सेना रखना और उसकी निष्ठा प्राप्त करना संभव नहीं है।

6. दंड

‘दंड’ का, अर्थात मुख्यतया सेना के रूप में सुलभ  बल के प्रयोग की शक्ति का उल्लेख, राज्य के छठे अंग के रूप में हुआ है। ‘कौटिल्य’ के अनुसार, इस अंग में पुश्तैनी, भाड़े पर रखे गए — वन और निगम के सैनिक आते हैं, जो पदाति, रथारोही , हस्ति सैनिक और अश्वारोही चार भागों में विभक्त होते हैं लेकिन ‘शांतिपर्व’  में ‘दंड’ के  संदर्भ में उल्लेखित है कि सेना में – हाथी, घोड़ा रथ,पदाति , नाविक, बेगार, देशी और भाड़े के सैनिक होते हैं जिसे ‘अष्टांगबल’ कहा गया है ।

‘मनुस्मृति’  में ‘दंड’ को हीं “लोगों का शासक, सभी का परित्राता और धर्म का संरक्षक” कहा गया है। ‘शांतिपर्व’ में उद्धृत है, कि  – “यदि राजा बल प्रयोग ना करें तो “मत्स्य न्याय” से बलशाली लोग बलहीनो को निगल जाएंगे।  दंड के बिना क्षत्रिय की शोभा नहीं है क्योंकि इसके बिना वह और उसकी प्रजा सुख समृद्धि का उपभोग नहीं कर सकती है।”  ‘याज्ञवल्क्य स्मृति’ , के अनुसार – “सप्तांग राज्य प्राप्ति के बाद राजा को दुष्टों को दंड देने में अपनी सत्ता (दंड) का प्रयोग करना चाहिए क्योंकि पुराकाल में ब्रह्मा ने दंड के रूप में धर्म का निर्माण किया था।”

 संभवत मौर्योत्तर काल में विदेशी आक्रमणों और आंतरिक विद्रोह के कारण विघटनकारी शक्तियों की सक्रियता से दंड का महत्व काफी बढ़ गया था।

यद्यपि ‘कौटिल्य’ ने ‘क्षत्रियों’ को सैनिक के रूप में सबसे उपयुक्त माना है तथापि उसने संख्या बल के विचार से ‘वैश्यों’ और ‘शूद्रों’ को भी सेना में शामिल करने की सिफारिश की है। ‘मनु’ ने आपत्ति-काल में ‘ब्राह्मणों’ और  ‘वैश्यों’ को भी शस्त्र धारण की आज्ञा दी है, लेकिन ‘शूद्रों’ को नहीं। ‘कौटिल्य’ के अनुसार सेना वंशानुगत और निष्ठावान तथा आक्रमण के समय आवश्यक सैन्य उपादानो से सज्जित होनी चाहिए तथा  सैनिकों के निर्वाह के लिए इतनी राशि वेतन में देनी चाहिए जिससे वे संतुष्ट रहें।

7. मित्र

राज्य के सप्तांग सिद्धांत के संदर्भ में ‘कौटिल्य’ द्वारा उल्लेखित सातवां और अंतिम अंग ‘मित्र’ है। जो अन्य ग्रंथों में ‘सुहृद’ के रूप में भी अभिहित किया गया है। ‘कौटिल्य’  के अनुसार ‘मित्र’  कुलीन, दुविधाशून्य , महान तथा वंशानुगत  होना चाहिए, जिसके साथ मतभेद की संभावना ना हो और जो अवसर आने पर सहायता के लिए तैयार रहे। ‘विजीगिषु राजा’ , अर्थात विजय के लिए आकांक्षी राजा को अपने सैन्य अभियान के लिए ऐसा ‘मित्र’ चाहिए जो अवसर आने पर सहायता के लिए तैयार रहें तथा जिसके साथ विवेध की संभावना ना हो।

राज्य के उपरोक्त सातों अंगों के विवेचन के संदर्भ में ‘कौटिल्य’ की एक महत्वपूर्ण सैद्धांतिक  देन इन अंगों को प्रभावित करने वाले विपत्तियों का विवेचन है। इन विपत्तियों से बचने के लिए ‘कौटिल्य’ राजा को सतर्क रहने का सुझाव देते हैं।

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