‘जियाउद्दीन बरनी’ की रचनाओं में तथ्यों के प्रस्तुतिकरण की शैली

This entry is part 3 of 3 in the series जियाउद्दीन बरनी

0:00

‘बरनी’ ने ‘तारीख- ए-फिरोजशाही’ , 1357-1358 ईस्वी, में पूरी की। उनकी रचना मध्यकालीन भारतीय इतिहास लेखन के विकास को दर्शाती है। इसमें उन्होंने केवल हिंदुस्तान के मुस्लिम शासकों एवं सत्ता को अपने विवरण का केंद्र बनाया है। इस कृति के विभिन्न अध्याय अलग-अलग शासनकाल पर आधारित है और वे अपनी सीमाओं का अतिक्रमण नहीं करते हैं। हर अध्याय के आरंभ में ‘बरनी’ ने शाही राजकुमारों तथा विभिन्न अमीरों की सूची दी है तथा ‘फिरोज शाह तुगलक’  के शासन काल को 11 अध्यायों में बांटकर, उस अवधि की सामान्य विशेषताओं को उद्धृत किया है।

‘बलबन’ द्वारा सत्ता के एकीकरण, विशेषतः ‘अलाउद्दीन खिलजी’ के समय ‘मंगोल आक्रमण’ , खिलजी शासन में सल्तनत के स्वरूप में आए परिवर्तन और विघटन का ज्वार रोकने के लिए  ‘मोहम्मद तुगलक’ द्वारा किए गए अव्यवहारिक और फलत: असफल नीतियों की जानकारी हमें ‘बरनी’ से मिलती है। वस्तुतः ‘बरनी’ का विवरण  ‘इल्तुतमिश’ एवं ‘बलबन’ के संपूर्ण युग को प्रस्तुत करने के साथ ही ‘मोहम्मद तुगलक’ के गत्यात्मक व्यक्तित्व तथा  सल्तनत काल की महत्वपूर्ण घटना ‘खिलजी साम्राज्यवाद’ के विषय में दिल्ली-सल्तनत के समस्त पक्षों को उजागर करता है। यद्यपि ‘बरनी’ ने अपनी रचनाओं में ‘अलाउद्दीन खिलजी’ के सैन्य अभियानों का सही विवरण नहीं दिया गया है, परंतु समग्र रूप से यह इस संदर्भ में ‘अमीर खुसरो’ की रचना ‘खजायनुल-फूतूह’ से महत्वपूर्ण है।

‘बरनी: अपनी कृतियों में विभिन्न विषयों पर ऐतिहासिक व्यक्तियों के मध्य वार्तालाप को दर्शाते हैं ,यद्यपि इससे उनकी कृतियां रोचक बन गई हैं तथापि कई अवसरों पर बरनी की राजतंत्र विषयक अवधारणा ही सुल्तानों की राजतंत्र विषयक अवधारणा  के रूप में उल्लेखित है, यथा —- ‘फतवा-ए-जहांदारी’ में ‘बरनी’ के  विचार ही ‘महमूद गजनी’ द्वारा अपने पुत्रों के समक्ष दिए गए भाषणों में अभिव्यक्त हुए हैं। इसमें ‘महमूद’ ऐतिहासिक उदाहरण देकर अपने तर्क को स्पष्ट करता है। इस कृति की एकमात्र प्रति की उपलब्धता इसकी अलोकप्रियता की परिचायक है। यह पुस्तक सल्तनत-कालीन राजनीतिक विचारधारा की जगह इस संदर्भ में ‘बरनी’ के दृष्टिकोण को प्रतिबिंबित करती है।

निजी भावनाओं के समावेश से अतिरंजित तथ्य –  ‘बरनी’ ने बादशाहों की मुक्ति हेतु इस्लाम का संरक्षण, शरीयत का क्रियान्वयन, अनैतिकता का निषेध, शासन में पवित्र धार्मिक व्यक्तियों के समावेश और गैर मुसलमानों को दंड देना आवश्यक बताया है। वे मानते थे कि शासक की सफलता उसकी नीतियों पर निर्भर होती है। एक संस्था के रूप में बादशाहत को भय द्वारा कायम रखने के लिए उन्होंने ‘बलबन’ की प्रशंसा की है तथा ‘अलाउद्दीन’ के आर्थिक सुधारों को साम्राज्य की शक्ति एवं सुरक्षा के लिए आवश्यक माना है।

मध्यकालीन मुस्लिम लेखकों में एकमात्र ‘बरनी’ ने, शरीयत के प्रावधानों के आधार पर शासन संचालन पर अपनी रचनाओं में कहीं-कहीं प्रश्न चिन्ह लगाया है तथा अपनी रूढ़िवादी विचारों के बावजूद शासक की न्याय प्रियता और कुछ अंशों में धर्मनिरपेक्ष राजकीय कानून ‘जवाबित’ की आवश्यकता पर बल दिया है।हम कह सकते हैं कि ‘बरनी’ ऐतिहासिक चेतना से अनभिज्ञ नहीं थे तथापि उनकी राजनीतिक दृष्टि उनके पूर्वाग्रहों से नियंत्रित होने के कारण धीरे-धीरे विशेषाधिकारों से वंचित होते  उच्च वंश के लोगों  के असुरक्षा भाव को व्यक्त करती हैं।

तत्कालीन दिनानुदिन जटिल होती राज प्रणाली में सफलता एवं वैभव के लिए तुर्क वंश की सदस्यता नहीं बल्कि प्रतिभा तथा प्रशासनिक योग्यता की आवश्यकता थी। शासक वर्ग में नवीन तत्वों के समावेश की इस प्रक्रिया में अपदस्थ उच्च वर्ग के लोगों में ‘बरनी’ भी शामिल थे। उनकी मान्यता के अनुसार आदर्श मुस्लिम समाज एक खास और सुनिश्चित पेशे वाले श्रेणी क्रम में व्यवस्थित था तथा इसकी यथास्थिति कायम रखना शासन का कर्तव्य था।

‘बरनी: ने अपने कष्टों का मूल सुल्तानों की इन नीतियों को मानते हुए ‘मोहम्मद तुगलक’ की कटु आलोचना की क्योंकि उसने निम्न कुल के तथा धर्मांतरण द्वारा मुसलमान बनने वाले व्यक्तियों को उच्च पद दिया था।’मोहम्मद तुगलक’ को गलत सलाह देने के लिए दार्शनिकों तथा बुद्धिजीवियों को दोषी मानकर ‘बरनी’ ने भविष्य में सुल्तानों को इनके दमन की सलाह दी। उन्होंने शिक्षकों द्वारा निम्न कुल के व्यक्तियों को शिक्षा नहीं देने तथा शासन द्वारा व्यापारियों की आय पर कठोर नियंत्रण रखने पर बल देकर सामाजिक गतिशीलता को और कृषि-अधिशेष पर निर्भर सामंत वर्ग के पतन को रोकने की चेष्टा की। अपनी रचनाओं में हिंदुओं के विरुद्ध कटु भाषा का उन्होंने प्रयोग किया है। संभवतः अपनी विपन्नता और सल्तनत के प्रति निष्ठा के कारण उन्होंने संपन्न एवं विरोधी हिंदुओं का विरोध किया लेकिन इससे  सल्तनत काल में व्याप्त धार्मिक कट्टरता की पुष्टि भी होती है।

इतिहासकार के रूप में ‘बरनी’ का सर्वप्रमुख दोष उनकी रचनाओं का दोषपूर्ण कालानुक्रम है। इसका कारण ‘बरनी’ द्वारा अपनी याद पर आधारित तथा उन पर प्रभाव डालने वाली किसी कार्य-कारण श्रृंखला में जुडी घटनाओं का उल्लेख है। ‘बरनी’ की कृतियों में त्रुटि के मूल में अतिशय राजनीतिक किस्म की उक्तियों में उनके पूर्वाग्रह एवं सूचना स्रोत के प्रति उनकी असावधानी शामिल है। यथा, ‘बरनी’ द्वारा ‘मोहम्मद तुगलक’ के शासन का चित्रण सुल्तान का विकृत चित्र प्रस्तुत करता है।उन्होंने खुद स्वीकार किया है इस चित्रण में उनकी दृष्टि काफी चयनात्मक रही है और वे सुल्तान को भली-भांति समझते नहीं थे तथा उनकी एकमात्र चिंता सुल्तान की असफलता के कारणों का पता लगाना था।

वस्तुतः बरनी ने घटनाओं को केवल काल क्रमानुसार क्रमबद्ध करने की जगह शासन परिवर्तन के क्रम में दृष्टिगोचर प्रवृत्तियों पर बल दिया।उन्होंने हर अध्याय के अंत में संबद्ध सल्तनत कालीन राजनीति के किसी न किसी पहलू के विकास की रूपरेखा प्रस्तुत करने की  चेष्टा में सुल्तानों का दंड के प्रति दृष्टिकोण का विवेचन किया, अर्थव्यवस्था-राजस्व तथा प्रशासन संबंधी सूचनाओं के अलावा पीरों,:हकीमो,:कवियों, अमीरों आदि की सूचियां भी दीं हैं।

निष्कर्ष – नि:संदेह ‘बरनी’ के अमूल्य कृतित्व की समता अन्य कोई समकालीन लेखन नहीं कर सकता।यद्यपि पर्याप्त तथ्य जैसे युद्ध और तिथि-क्रम का विवरण देने में उनकी दिलचस्पी नहीं रहने तथा रचनाओं में निजी भावनाओं के समावेश से उनका इतिहास लेखन स्पष्टतः आत्मपरक है, लेकिन उपरोक्त तथ्यों से स्पष्ट है की ‘बरनी’ की रचनाओं से मध्यकालीन राजनीति,:प्रशासन,;अर्थव्यवस्था के साथ ही जनमानस की गतिविधियों के संदर्भ में सूक्ष्म अंतर्दृष्टि मिलती है। सल्तनत काल के बौद्धिक इतिहास के अध्ययन में बरनी की कृतियों से अनिवार्यत: मदद मिलती है। बरनी की रचनाओं का मूल्यांकन कर प्रोफेसर हबीब ने लिखा है – “बरनी के लिए इतिहास का अर्थ महज तिथि क्रम एवं घटनाओं का ब्योरा नहीं था बल्कि निश्चित रूप से विज्ञान था, सामाजिक क्रम का विज्ञान, इसका आधार धर्म या परंपरा नहीं बल्कि अवलोकन एवं अनुभव था।”

Series Navigation<< एक इतिहासकार के रूप में ‘जियाउद्दीन बरनी’ का मूल्यांकन

Leave a Comment

Your email address will not be published. Required fields are marked *

Scroll to Top