हम्मूराबी की ‘विधि-संहिता’

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हम्मूराबी की ‘विधि-संहिता’

संभवत: ‘हम्मूराबी’ की ‘विधि-संहिता’ इतिहास की प्राचीनतम ‘विधि-संहिता’ है, जो अखंड रूप में मिली है। ‘हम्मूराबी’ ने अपनी संहिता को स्थाई रूप देने के लिए, उसे लगभग 8 फीट ऊंचे पाषाण स्तंभ पर 360 पंक्तियों में उत्कीर्ण करवा कर ‘बेबीलोन’ में ‘मर्दुक’ के ‘मंदिर-ए-सागिल’ में स्थापित किया था। यद्यपि संहिता का निर्माण आवश्यकता के आधार पर व्यावहारिक दृष्टिकोण से किया गया था लेकिन जनता के मध्य इसे श्रद्धेय बनाने के लिए ‘संहिता-लाट’ को धार्मिक रूप दिया गया था। ‘संहिता-लाट’ के ऊपरी भाग में न्याय के संरक्षक देवता ‘शमश (सूर्य देव)’ को सिंहासन पर संहिता हाथ में लेकर विराजमान दर्शाया गया है तथा उसके सामने ‘हम्मूराबी’ का चित्र आदर प्रदर्शित करने की मुद्रा में संहिता ग्रहण करते हुए अंकित है। इसके बाद पद्य में 285 धारा में प्रस्तावना अंकित है। जिसमें एक एक मुकदमे और तत्संबंधी रीति रिवाज पर आधारित कानूनों का एवं पूर्व कानूनों में लाए गए संशोधन तथा परिवर्तन का उल्लेख है। अंत में संकेत किया गया है की “शमश, अच्छाई और प्रगति के लिए उस राजा को वरदान देता है, जो कानून की रक्षा करता है और उस राजा को अभिशाप देता है, जो उत्कीर्ण कानूनों को लागू करने में विफल रहता है।”

‘सेमेटिक’ भाषा में उत्कीर्ण ‘हम्मूराबी’ की ‘विधि- संहिता’ की प्रस्तावना संक्षेप में इस प्रकार है —

” ‘अनुनाकी (Anunaki)’ और ‘बेल’ के शासक ‘स्वर्ग’ और ‘पृथ्वी’ के स्वामी और पृथ्वी (के जीवो) के भाग्य विधाता श्रेष्ठ देव ‘अनु (Anu)’ ने मानव समाज के शासन के लिए ‘मर्दुक’ को नियुक्त किया और उन्होंने वैभवयुक्त ‘बेबीलोन’ की घोषणा की और जब उन्होंने विश्व में ‘बेबीलोन’ को सर्वाधिक महत्वपूर्ण बनाया, उस समय ‘अनु’ तथा ‘बेल’ ने मुझे (हम्मूराबी को) आमंत्रित किया और न्याय का राज्य स्थापित करने के लिए, बुरे लोगों का बुराइयों के लिए, सबलों द्वारा दुर्बलों को सताए जाने से बचाने के लिए, पृथ्वी को सुखी और प्रजा कल्याण करने के लिए कहा। मैं, ‘हम्मूराबी’, जिसको ‘बेल’ ने शासक बनाया और जिसने (हम्मूराबी) सर्वत्र संपन्नता लाई, ‘निप्पुर’ और ‘दुरिलू ( Durilu)’ के लिए सब कुछ किया, ‘उरुक’, नगर को जीवन दिया, नागरिकों को प्रचुर जल राशि दी, ‘बोरसिप्पा’ नगर को सौंदर्य-युक्त किया, शक्तिशाली ‘उराश (Urash)’ के लिए अन्नों का संग्रह किया, आवश्यकता होने पर नागरिकों की सहायता की और ‘बेबीलोन’ के नागरिकों की संपत्ति की रक्षा की, जनता के इस शासक उसकी सेवा के कार्य ‘अनुनकी’ को प्रिय हैं।”

‘सेमेटिक’ भाषा में उत्कीर्ण इस ‘विधि-संहिता’ में कुल 285 धाराएं हैं, जो वैज्ञानिक ढंग से ‘व्यक्तिगत संपत्ति’, ‘व्यापार और वाणिज्य’, ‘परिवार’, ‘अपराध’ और ‘श्रम’ आदि अध्यायों में विभाजित है। ‘हम्मूराबी’ की ‘विधि-संहिता’ का वर्णन निम्नलिखित शीर्षकों के तहत किया जा सकता है —

विधि संहिता में दंड व्यवस्था के मूल सिद्धांत

इस संहिता की दंड व्यवस्था में “शठे शाठ्यम समाचरेत” के सिद्धांत को आधार बनाया गया था। “जैसे को तैसा” को वैध मानते हुए अपराधी को उसके द्वारा किए गए अपराध के समान सजा दी जाती थी, यथा – आंख फोड़ने वाले की आंख फोड़ दी जाती थी तथा यदि कारीगर द्वारा निर्मित मकान गिरने से गृहस्वामी की मृत्यु हो जाए तब कारीगर को मृत्युदंड दिया जाता था लेकिन गृह स्वामी के पुत्र या पुत्री की मृत्यु होने पर कारीगर के पुत्र या पुत्री को मृत्यु दंड दिया जाता था।

हम्मूराबी की विधि संहिता में समदृष्टि का अभाव था। व्यभिचार के आरोप में औरतों को मृत्यु दंड दिया जाता था परंतु पुरुषों को नहीं। साथ ही, समान अपराध के लिए उच्च वर्ग के लोगों को दी जाने वाली सजा से अधिक सजा मध्यवर्ग को और उससे अधिक निम्न वर्ग को मिलती थी। दंड निर्धारण में अभियोगी और अपराधी के सामाजिक स्तर का ध्यान रखा जाता था, जैसे – उच्च वर्ग के सदस्य की आंख यदि उसी वर्ग के सदस्य द्वारा फोड़ दी जाए दी तब अपराधी की आंख फोड़ दी जाती थी परंतु मध्यम वर्ग के सदस्य की आंख फोड़ने पर उच्च वर्ग के अपराधी को जुर्माना देना पड़ता था। उच्च वर्ग के पुरुष को तलाक भी आसानी से मिल जाता तथा चिकित्सा का शुल्क भी अन्य वर्गों से कम देना पड़ता था।

  1. ‘विवाह’ और ‘परिवार’ से संबंधित विधियां

‘हम्मूराबी’ की ‘विधि-संहिता’ में बेबीलोन के नागरिकों के पारिवारिक जीवन को कानूनों के द्वारा अनुशासित करने के उद्देश्य से विवाह, तलाक, गोद लेने, उत्तराधिकार, विधवाओं के अधिकार आदि विषयों पर विधियां बनाई गई थी।

  • विवाह

 इसे कानूनी रूप देने के लिए विवाह के पूर्व एक ‘अनुबंध-पत्र’ लिखा जाता था और उस पर साक्षियों के हस्ताक्षर होते थे। इस समझौते को मानना दोनों पक्षों का कानूनी कर्तव्य था। स्त्रियों के लिए व्यभिचार भयंकर अपराध था। पति द्वारा पत्नी पर व्यभिचार का आरोप लगाने पर पत्नी को नदी में डुबो दिया जाता था परंतु पर पुरुष द्वारा आरोप लगाने पर स्त्री को ‘फरात’ नदी में छलांग लगाकर अपनी निर्दोषिता सिद्ध करनी पड़ती थी, क्योंकि मान्यता थी की पवित्र नदी ‘फरात’ सदैव न्याय करती है। पति अपनी पत्नी को बचाने के लिए राजा से पुनरावेदन कर सकता था। पति को अपनी आर्थिक स्थिति और सामाजिक प्रतिष्ठा के अनुसार पत्नी का भरण पोषण करना पड़ता था। पति द्वारा स्वेच्छा से नगर त्याग देने पर पत्नी को पुनर्विवाह का अधिकार था, लेकिन यदि पति उच्च वर्ग का सदस्य हो तथा युद्ध में बंदी बना लिया जाए तब उस स्थिति में अगर वह पत्नी के भरण पोषण हेतु पर्याप्त धन छोड़ गया है, तब पत्नी दूसरी शादी नहीं कर सकती थी।पति के गृह त्याग पर दूसरा विवाह करने के लिए बाध्य स्त्री पूर्व पति की वापसी पर उसके पास वापस आ सकती थी। दूसरे पति से उत्पन्न संतान की जिम्मेदारी, ऐसी स्थिति में पहले पति की नहीं होती थी।

  • तलाक

 विधि-संहिता’ में तलाक के लिए नियम थे। तलाक देने पर पति, पत्नी और बच्चों के भरण-पोषण के लिए धन देता था। असाध्य रोग से पीड़ित और बांझ पत्नी को तलाक नहीं दिया जा सकता था बल्कि पति एक उपपत्नी रख सकता था। गृह प्रबंध में लापरवाह पत्नी को बिना भरण पोषण के लिए धन दिए हुए तलाक दिया जा सकता था।

 तलाक प्राप्त स्त्री का पूर्व पति जब मर जाता था तब उसकी संपत्ति पर परित्यक्ता पत्नी और बच्चों का अधिकार होता था। विधवा स्त्री को भी पति की संपत्ति में हिस्सा मिलता था कानूनी रूप से पुरुष दो स्त्रियों को पत्नी का दर्जा नहीं दे सकता था, इसलिए संतानोत्पत्ति के लिए लाई गई, उपपत्नी को संतान उत्पन्न करने के बाद पुरुष से अलग होने का अधिकार था।

‘हम्मूराबी’ ने अपनी विधियों द्वारा पत्नी के रूप में स्त्रियों के अधिकारों और कर्तव्यों का निर्धारण कर उन्हें समाज में तथा परिवार में सम्मानित स्थान दिया।

2. देवदासियों से संबंधित नियम

बेबीलोन के मंदिरों में ‘देवदासी-प्रथा’ प्रचलित थी। सामान्यतः उच्च वर्ग की अविवाहित लड़कियां ‘देवदासी’ बनती थी। देवदासी पद की शपथ लेने वाली लड़कियों को पिता से दहेज की तरह धन मिलता था तथा उन्हें निजी संपत्ति खरीदने और व्यापार करने का अधिकार था। यह धन देवदासियों की निजी संपत्ति होता था, जिसे वे इच्छानुसार व्यय कर सकती थी। देवदासियों को ‘देवदासी’ रहने तक ब्रह्मचर्य का पालन करना पड़ता था, परंतु इच्छा अनुसार वे, ‘देवदासी’ का पदत्याग कर  विवाह कर सकती थी। विवाहित स्त्रियां भी वैवाहिक जीवन का त्याग कर ‘देवदासी’ बन सकती थी, साथ हीं वे पत्नी के पद पर भी प्रतिष्ठित रहती थी, लेकिन वह संतान उत्पन्न नहीं कर सकती थी। यद्यपि इस स्थिति में संतानोत्पत्ति के लिए पति दूसरी पत्नी रख सकता था परंतु वह स्त्री पत्नी के अधिकारों से वंचित रहती थी। देवदासियों के लिए सुरा का व्यापार करना निषेधित था तथा मदिरालय में प्रवेश करने पर भी उन्हें मृत्यु-दंड दिया जाता था।

3. ‘संपत्ति’ से संबंधित विधियां

‘हम्मूराबी’ ने संहिता में व्यक्तिगत और सामाजिक संपत्ति से संबंधित कानूनों को समाहित किया था। व्यक्तिगत संपत्ति चिरस्थाई थी परंतु व्यक्तिगत कर्ज अदायगी के लिए इसे बेचा जा सकता था। मंदिर और राजप्रसाद की संपत्ति सामाजिक थी, जिसे क्षति पहुंचाने पर क्षतिपूर्ति की रकम सर्वाधिक होती थी। विधि संहिता में एक अन्य संपत्ति ‘इल्कू (Ilku)’ का उल्लेख है जिसका विक्रय या हस्तांतरण नहीं किया जा सकता था।

 एक विवाहित स्त्री की संपत्ति उसकी निजी संपदा थी, जिस पर उसकी मृत्यु के बाद उसके बच्चों का अथवा संतानहीन होने पर पितृ कुल का अधिकार हो जाता था।

 4. दास प्रथा से संबंधित विधियां

 बेबिलोनियाई समाज में उच्च और मध्यम वर्ग के परिवारों में काम करने वाले ‘दास’ अपने मालिकों की निजी संपत्ति माने जाते थे। दासों का  क्रय-विक्रय होता था अथवा युद्ध बंदियों को दास बना कर उसके शरीर पर मालिक का ‘स्वत्व-चिन्ह’ अंकित कर दिया जाता था। ‘हम्मूराबी’ ने दासों और स्वामियों के अधिकारों एवं कर्तव्यों के संबंध में कानून बनाए।

दासों की आयु, स्वास्थ्य, कार्य क्षमता आदि के आधार पर उनकी कीमत निर्धारित की गई तथा दासों के क्रय-विक्रय का कार्य साक्षियों की उपस्थिति में करना अनिवार्य बना दिया गया। स्त्री दासी की कीमत पुरुष से अधिक होती थी। माता-पिता में से कोई एक या दोनों अपनी संतान को ‘दास’ के रूप में बेच सकते थे। एक स्वतंत्र महिला दास पुरुष से विवाह कर सकती थी तथा वह स्त्री और विवाह से उत्पन्न संतान स्वतंत्र होती थी। दास पति के मरने के बाद स्त्री को स्त्रीधन और संयुक्त संपत्ति में आधा भाग मिलता था, जबकि शेष आधा भाग दास के स्वामी को मिलता था। किसी स्वतंत्र पुरुष द्वारा दास स्त्री को उप-पत्नी रखने पर उस पुरुष के निधन के बाद दास-स्त्री और उत्पन्न संतान स्वतंत्र हो जाते थे लेकिन संतानों को पिता के वसीयत करने पर ही पिता की संपत्ति में उत्तराधिकार प्राप्त होता था।

‘हम्मूराबी’ ने कुछ विधियों के द्वारा दासों को परिश्रम कर व्यक्तिगत संपत्ति अर्जित करने, संबंधियों की संपत्ति उत्तराधिकार में प्राप्त करने तथा उनकी सहायता से अपना मूल्य चुका  कर स्वामी की आज्ञा से स्वतंत्र होने का अधिकार था। दासों के स्वामी गृह से पलायन करने पर दंड का विधान था। किसी भी दास-दासी को अपहृत करने तथा पलायित दास-दासी को शरण देने वाले व्यक्ति को मृत्युदंड देने का, जबकि उन्हें पुनः स्वामी को लौटाने वाले व्यक्ति को इनाम देने की व्यवस्था थी।

5. ‘श्रम’ और ‘पारिश्रमिक’ संबंधी विधान

‘हम्मूराबी’ ने ‘श्रम’ को महत्ता दी तथा अपनी संहिता में सरकारी कार्यों एवं अन्य पेशों जैसे शल्य चिकित्सक, कारीगर, रंगरेज, दर्जी आदि के पारिश्रमिक का निर्धारण किया। सरकार द्वारा निर्मित नहरों के निर्माण में श्रम करने वाले स्थानीय नागरिकों को नहर में मछली पकड़ने का एकाधिकार मिलता था। संहिता में बड़ी नाव और जलपोतों के निर्माण की मजदूरी भारवाहक क्षमता के अनुसार निर्धारित की गई थी, जैसे 60  ‘गुर’ माल ढोने वाले नाव के निर्माण की मजदूरी दो ‘शेकेल’ चांदी थी तथा नाव में 1 वर्ष में आई किसी खराबी का उत्तरदायित्व कारीगर का होता था। एक मल्लाह को 60 ‘गुर’ अनाज वेतन के तौर पर मिलता था।

 पारिश्रमिक के भुगतान के लिए उच्च वर्ग को अधिक तथा मध्य और निम्न वर्ग को कम राशि देनी पड़ती थी, जैसे शल्य चिकित्सक को आंख की शल्य चिकित्सा के लिए शासक और उच्च वर्ग से 10 ‘शेकेल’, मध्यवर्ग से 5 और दासों से   2 ‘शेकेल’ मिलते थे। जबकि पैरों की शल्य चिकित्सा के लिए उपरोक्त वर्गों से क्रमशः 5, 3 और 2 ‘शेकेल’ मिलते थे।

6.’कृषि’ तथा ‘वाणिज्य-व्यापार’ संबंधी विधियां

 हम्मूराबी की विधि संहिता में नागरिकों के जीवन यापन के दो मुख्य स्रोत ‘कृषि’ तथा ‘व्यापार- वाणिज्य’ के नियमन के लिए विस्तार से कानून बनाए गए थे।

  • कृषि

बेबिलोनिया में कृषि के लिए भूस्वामी पट्टे पर कृषकों को जमीन देते थे। उनके बीच करार होता था कि वह उपज का एक तिहाई अथवा आधा भाग भूस्वामी को किराया के रूप में देंगे तथा कृषक की लापरवाही से  उपज कम होने पर कृषक को किराया अधिक देना होगा। विधि-संहिता में फसल की सरकारी मालगुजारी तय की गई थी तथा प्राकृतिक आपदा में फसल नष्ट होने पर, सरकार द्वारा फसल पर कर को, कम कर दिया जाता था और भूस्वामी एवं कृषक क्षति को बराबर वहन करते थे। यदि कोई चरवाहा बिना अनुमति किसी कृषक के खेत में पशु चराता था तब उसे कृषक को जुर्माना देना पड़ता था।

हम्मूराबी ने कृषि यंत्रों की सुरक्षा के लिए कानून बनाए थे। कृषि यंत्रों की चोरी करने वाले व्यक्ति को यंत्र की बनावट और कीमत के अनुसार दंड मिलता था।

  • वाणिज्य व्यापार

 बेबीलोन में समाज के उच्च वर्ग के सदस्य और बड़े व्यापारी, अपने माल को सौदागरों के द्वारा दूसरे देशों में बेचते थे। ‘हम्मूराबी’ की विधियों के अनुसार, राज्य कर्मचारियों द्वारा तैयार ‘अनुबंध-पत्र’ पर अन्य व्यापारियों की साक्षी में, व्यापारी और सौदागर दोनों को हस्ताक्षर करना पड़ता था। इस पत्र में  व्यापारिक शर्तों का उल्लेख रहता था तथा सौदागर, व्यापारी को माल प्राप्ति की रसीद देते थे तथा व्यापारी सौदागर से प्राप्त धन की रसीद उसे देते थे।

यदि व्यापारिक काफिले लूट लिए जाते थे तो विधि के अनुसार सौदागरों को वापस आने पर शपथ लेकर हानि के विषय में बताना पड़ता था तथा मूलधन, व्यापारी को वापस करने पर वह दायित्व मुक्त हो जाता था परंतु यदि सिद्ध हो जाता था कि सौदागरों ने बेईमानी की है तब उन्हें प्राप्त माल से तीन गुना धन व्यापारी को देना पड़ता था। व्यापारी अनुबंध में अपने मूलधन पर दो गुना लाभ लेने की शर्त रख सकते थे लेकिन यदि व्यापारी झूठा दावा करते थे कि उनका माल उन्हें नहीं लौटाया गया तब उन्हें सौदागरों को उस माल के मूल्य का छः गुना धन देना पड़ता था।

7. ‘भ्रष्टाचार’ और ‘क्षतिपूर्ति’ संबंधी विधान  

‘हम्मूराबी’ ने विधि-संहिता में भ्रष्ट आचरण के विरुद्ध कानून बनाए थे। अवज्ञा करने वाले दास के कान काट दिए जाते थे। पिता पर आक्रमण करने वाले पुत्र और लापरवाह शल्य चिकित्सक के हाथ काट दिए जाने तथा प्रसूता मां या सेविका द्वारा नवजात शिशु की अदला बदली किए जाने पर स्तन काट दिए जाने का विधान था।

क्षतिपूर्ति में सामाजिक स्तर का ध्यान रखा जाता था यदि जैसे यदि उच्च वर्ग का सदस्य बैल चुराता था तो उसे पशु मूल्य का 30 गुना धन हर्जाना में देना पड़ता था लेकिन मध्यवर्ग के सदस्य को इस अपराध के लिए 10 गुना धनऔर धन नहीं देने पर मृत्यु दंड दिया जाता था।

8.’मृत्युदंड’ के नियम और अपराध  

‘हम्मूराबी’ ने कठोर दंड-विधान को बेबीलोन में लागू किया तथा जघन्य कार्यों और राजद्रोह आदि से संबंधित अपराधों के लिए मृत्यु-दंड का प्रावधान किया। व्याभिचार, बलात्कार, बेकार घूमने, सराय में असभ्य आचरण करने, पर मृत्यु-दंड दिया जाता था। इसके अतिरिक्त निम्न अपराधों के लिए भी मृत्यु दंड दिया जाता था

(A). फौजदारी मुकदमों में झूठी गवाही देना।

(B). मंदिर और राजमहल की धनराशि लूटना या चोरी करना।

(C). चल संपत्ति की चोरी करना और अपराध सिद्ध होने पर जुर्माना देने से इनकार करना तथा चोरी का माल खरीदना या छिपाना।

(D). दासों को बहका कर भगाना या पलायित दास को शरण देना।

(E). युद्ध भूमि से भागना या सैन्य कार्य से इनकार करना।

(F). किसी सैनिक की जगह दूसरे व्यक्ति से सैन्य कार्य लेने वाला अधिकारी।

(G). अन्य राज्याधिकारियों के कार्य में हस्तक्षेप करने वाला अधिकारी।

(H). धर्म या धार्मिक विश्वासों की निंदा करना।

(I). विवाह करने में असफल रहने पर पुरुष द्वारा लड़की का शील भंग करना।

(J). हम्मूराबी की संहिता में मृत्युदंड के तरीकों का भी उल्लेख है इन अपराधों में पानी में डुबोकर मृत्यु दंड दिया जाता था।

(K). शराब दुकान के मालिक द्वारा निर्धारित सरकारी दर से अधिक पैसा लेना।

(L). युद्ध बंदी पति की पत्नी द्वारा पर्याप्त धन होने पर  भी व्याभिचार करना।

(M). चरित्रहीन पति की संपत्ति का दुरुपयोग करने वाली तथा पति को छोड़ना चाहने वाली स्त्री भी मृत्युदंड का पात्र थी।

हम्मूराबी’ की ‘विधि-संहिता’ विश्व की सर्वाधिक महत्वपूर्ण और प्राचीन संहिता है। ‘हॉल’ ने ‘हम्मूराबी’ को इतिहास का महान संगठनकर्ता कहा है। यद्यपि ‘हम्मूराबी’ के पूर्व मेसोपोटामिया में तीन ‘विधि-संहिताओ’ –   ‘इस्नून्ना’ के शासक ‘बिलालामा’ की विधि-संहिता, ‘ईसिन’ के शासक ‘लिपित-इस्तार’ की ‘विधि- संहिता’ तथा ‘उर’ के तृतीय राजवंश के शासक ‘उर-नम्मू’ की ‘विधि-संहिता’ का निर्माण हो चुका था तथा ‘हम्मूराबी’ ने इन सहिंताओं की विधियों को अपनी संहिता में स्थान दिया था तथापि ‘हम्मूराबी’ ने हीं पहली बार विश्व इतिहास में व्यावहारिक पक्ष पर आधारित और वैज्ञानिक रूप से व्यवस्थित संहिता का निर्माण किया था।

 इतिहासकार ‘मार्टिन ए. बीड’ ने ‘हम्मूराबी’ की संहिता को पूर्व की संहिताओं से अधिक ‘विशद’ और ‘सर्वाधिक रुचिकर’ कहा है। ‘बिल डंचूरा’ ने ‘हम्मूराबी’ की संहिता को मेसोपोटामिया की एकता और अखंडता का प्रधान कारण माना है। स्पष्ट है कि ‘हम्मूराबी की संहिता’ परवर्ती युगों में भी बेबिलोनिया ही नहीं समस्त पश्चिमी एशिया में समाज को व्यवस्थित करने वाली नियामक संहिता के रूप में उपयोगी बनी रही।

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