‘जियाउद्दीन बरनी’ की गणना मध्यकालीन विशेषकर ‘दिल्ली-सल्तनत’ के महानतम इतिहासकारों में की जाती है। एक विषय के रूप में इतिहास के प्रति ‘बरनी’ काफी आदर भाव रखते थे, उनके अनुसार — “इतिहास की नीव सत्यवादिता पर टिकी होती है, इतिहास लोगों को ईश्वरीय वचनों, कार्यों तथा शासकों के सत्कार्यों से परिचित कराता है। इतिहासकार को सत्य वादी, निर्भीक और ईमानदार होना चाहिए क्योंकि अपने गलत कथनों के लिए उसे ईश्वर द्वारा दंडित होना पड़ताहै।” बरनी की कृतियां ‘तारीखें ए फिरोजशाही’ और ‘फतवा ए जहांदारी’ ऐतिहासिक दृष्टि से अमूल्य हैं, जिनसे सल्तनत-कालीन राजनीतिक, सामाजिक और आर्थिक स्थिति, समस्याओं तथा उनके समाधान के स्वरूप की समग्र जानकारी मिलती है लेकिन दूसरी ओर ‘बरनी’ की कृतियां, उन विवादों की जड़ है, जो उस युग से संबंधित आधुनिक इतिहास लेखन में समस्या का कारण है। वस्तुतः बरनी की रचनाओं से मिलने वाले सामाजिक – राजनीतिक रुझान, ‘बरनी’ की सामाजिक पृष्ठभूमि के साथ ही तत्कालीन उलेमाओं के एक खास वर्ग की रूचियों को प्रतिबिंबित करता है। उल्लेखनीय है की, यह वर्ग हिंदू बहुल भारत में मुस्लिम शासक वर्ग द्वारा अपने अस्तित्व को कायम रखने हेतु किए गए समझौतों को सांस्थानिक रूप दिए जाने से भयभीत था। अतः बरनी के इतिहास दर्शन का अध्ययन शासक वर्ग के हितों के प्रति उनकी आग्रहशीलता के परिप्रेक्ष्य में किया जा सकता है।
जियाउद्दीन बरनी का जन्म 1284 या 1285 ई. में हुआ था। वे उस कुलीन सैयद वंश में उत्पन्न हुए थे,जिसने ‘इलबारी’ , ‘खिलजी’ और ‘तुगलक’ सुल्तानों की सेवा की थी। उनके चाचा ‘अला-उल-मुल्क’, ‘अलाउद्दीन खिलजी’ के सलाहकार एवं दिल्ली के कोतवाल थे। ‘बरनी’ को, अच्छी शिक्षा मिली थी और वे 17 वर्षों तक मोहम्मद तुगलक के नदीम अर्थात् ‘जिंदा दिल’ साथी बने रहे किंतु ‘फिरोज शाह तुगलक’ के सत्तारूढ़ होने पर शाही कृपा से वंचित होकर कुछ समय वह जेल में रहे। संभवतः वे ‘फिरोज शाह’ के सत्तानशीनी के विरोधी अमीरों के गुट से संबद्ध थे l
‘बरनी’ की कृतियों से प्रतीत होता है कि उनके जीवन के अंतिम वर्ष सामाजिक बहिष्कार और राज्य द्वारा धन संपत्ति जब्त कर लेने से काफी कष्टमय थे।